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________________ ४२८ वज्जालग्ग प्रीतम को पतियां लिखें, जो कहुँ होय विदेस । तन में मन में नयन में, ताकूँ क्या संदेस ।। शब्दार्थ-तग्गयमणम्मि (तदगतमनसि) = तेन प्रियेण गतं यातं तद्गतं तस्मिन् तद्गते मनसि, यत्र ध्यानमार्गेण प्रियः प्रविष्ट इत्याशयः । अर्थात् प्रिय के द्वारा गये हए मन में या जहां ध्यान-मार्ग से प्रिय आते हैं, उस मन में । दूर से आकर मन में बस जाने वाले प्रिय का प्रतीक है शशक । शशक तीव्रगामी होता है। २. तं प्रियं गतं यातम् ('द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्त प्राप्तापन्नः' के अनुसार समास) यह पद मन का विशेषण है। इस व्याख्या में 'तद्गतमनसि' का अर्थ है-प्रिय के पास गये हये मन में । यहाँ द्रुतगामी मन ही शशक है। पुच्छामो = पृच्छामः = पूछती है (अस्मदो द्वयोश्च-पा० सू०, १।११५९ से वैकल्पिक बहुवचन)। 'पूछती हूँ' का ध्वनितार्थ है-पूर्ण करती हूँ क्योंकि अतिशय प्रिय व्यक्ति की इच्छाओं को पूछ कर कोई निश्चेष्ट नहीं रहता है।' १अ. साहित्य में इस प्रकार के प्रयोग दुर्लभ नहीं हैं। रामचरितमानस की निम्नलिखित चौपाइयों में विभोषण के अभिषेक के लिये 'सिन्धु-नीर' मांगने का वर्णन है, मँगाने का नहीं, परन्तु उत्तरवर्ती वर्णन के आधार पर मांगना मँगाने में पर्यवसित हो गया हैएवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा, मांगा तुरत सिंधु कर नीरा । जदपि तात तव इच्छा नाही, मोर दरस अमोघ जग माहीं । अस कहि राम तिलक तेहि सारा, सुमन-वृष्टि नभ भई अपारा । -सुन्दरकाण्ड ब. व्यवहार में भी ऐसे प्रयोग प्रायः देखे जाते हैं, जैसे-- 'मैं प्रतिवर्ष कवि सम्मेलन में श्यामनारायण पाण्डेय को बुलाता हूँ'-इस वाक्य का यह भी अर्थ है कि श्यामनारायण पाण्डेय मेरे कविसम्मेलन में आते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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