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वज्जालग्ग
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(पंकज)। कयरइमकरंदकलं' ( कृतरतिमकरन्दकलम् ) हर का विशेषण है। इसका अर्थ है-जिसने रतिरस की कला का अभ्यास किया है ( कृता अभ्यस्ता रतिमकरन्दस्य रतिरसस्य कला निपुणता येन ) । अब पूरी गाथा का भाव बिल्कुल स्पष्ट है । अर्थ-गौरी के अधरों को प्रणाम करके उन ललित मुख शिव को प्रणाम करो, जो लावण्य-युक्त मुखरूपी कमल के निकट जाने वाले (चुम्बनार्थ ) भ्रमर हैं और जिन्होंने रति-रस की कला का अभ्यास किया है ।
गाथा क्रमांक ६२८ जा इच्छा कावि मणोपियस्स तग्गय मण म्मि पुच्छामो। ससय वहिल्लो सि तुमं जीविज्जइ अन्नहा कत्तो ॥ ६२८ ।।
येच्छा कापि मनः प्रियस्य तद्गतं मनसि पृच्छामः । शशक त्वरितोऽसि त्वं जीव्यतेऽन्यथा कुतः ॥
-रत्नदेवकृत संस्कृत छाया निम्नलिखित अंग्रेजी अनुवाद बिल्कुल शाब्दिक है
“जो हृदय को प्रिय है उसकी जो कुछ भी इच्छा होती है, हम उसे अपने मन में पूछ लेती हैं। अरे शशक, तुम बहुत शीघ्रगामी हो, अन्यथा तुम कैसे जीवित रहते।"
इस अर्थ में पूर्वार्ध और उत्तरार्ध परस्पर असम्बद्ध हैं और पद्य के तात्पर्य का भी पता नहीं है। अनुवादक ने तगयं' का अर्थ 'उस मनःप्रिय के विषय में' या 'उस इच्छा के विषय में' (पृ० ५५९) लिखा है, जो ठीक नहीं जंचता है। 'तग्गय' और 'मणंभि'-दोनों को पृथक् नहीं, एक पद माना जा सकता है। 'तग्गय' को अकारण लुप्त विभक्ति घोषित करना ठीक नहीं है। गाथा में किसी ऐसी प्रोषित-पतिका का वर्णन है, जिसका मन अपने प्रिय के अनुध्यान में इतना तन्मय हो गया है कि उसे विरह की अनुभूति कभी असह्य नहीं हो सकी। जब देखती है तब प्राणेश्वर को मन-मन्दिर में उपस्थित पाती है। उनको समस्त आकांक्षाओं का उसे पता है। प्राणों के पूत-प्रकोष्ठ में प्रतिष्ठित प्रिय की प्रणयपूर्ण प्रतिच्छवि ही उसके जीवन का अमूल्य सम्बल है । अतः उसी के सहारे जी रही है । प्रणय की इस उत्कट तल्लीनता का मर्मस्पर्शी वर्णन कबीरदास के निम्नलिखित दोहे में दिखाई देता है
१. वज्जालग्गं ( अंग्रेजी संस्करण ), पृ० ३६३ पर मूल अंग्रेजी देखिये ।
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