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वज्जालग्ग
२. स्तन एव जीवनः प्राणप्रदो यस्य अर्थात् स्तन
ही जिसे जिलाता है। अथवा स्तन एव जीवनं प्रियं जीवितं वा यस्य अर्थात् जिसे स्तन ही प्रिय हैं या स्तन ही जिसका
जीवन है। - यह किसी ऐसी सुरतोत्कण्ठिता विदग्व गोपिका को सोत्प्रासोक्ति है, जिसके पीनपयोधरों का उपमर्दन करके ही कृष्ण संतुष्ट रहते थे एवं एकान्त में यथेष्ट अवसर उपलब्ध होने पर भी मैथुन के लिये कभी प्रयास नहीं करते थे !
अर्थ-केशव, लोग सत्य हो कहते हैं, उत्कृष्ट धन को न जानने वाले, तुम, नन्द के चरवाहे (गोपाल) एवं क्षीरजीवी (या दुग्ध-विक्रेता) अहीर (जातिविशेष) हो-इसमें सन्देह नहीं है।
शृंगारपक्ष-केशव, लोग सत्य कहते हैं-अन्तिम प्रयोजन (अर्थात् सभोग) को न जानने वाले तुम, नन्द के चरवाहे एवं स्तन से जोवित रहने वाले (या स्तनमर्दन को ही अति प्रिय समझने वाले) अहीर (मूर्ख) हो-इसमें सन्देह नहीं है।
गाथा क्रमांक ६०९। चंदाहयपडिबिबाइ जाइ मुक्कट्टहासभीयाए । गोरीइ माणविहडणघडंतदेहं हरं नमह ।। ६०९ ॥ चन्द्राहतप्रतिबिम्बाया यस्या मुक्ताट्टहासभीतायाः गौर्या मानविघटनघटमानदेहं हरं नमत
-रत्नदेवकृत संस्कृत छाया छायाकार ने व्याख्या नहीं दी है। अंग्रेजी टिप्पणी में शब्दों का अर्थ देकर लिखा है कि इस पद्य का भाव स्पष्ट नहीं है अर्थ-काठिन्य के कारणों का वर्णन इन शब्दों में है
१. The sense of this stanza remains obscure, because of the expression चंदाहयपडिबिंबाए ।
२. The reason of Parvatis mana is not clear.
मेरे विचार से गौरी के मानहेतु और 'चंदाहयपडिबिंबाए' की दुर धिगम्यता के कारण गाथा में जो दुरूहता आ सकती है, उससे कहीं अधिक भयानक अर्थव्याघातकारी तत्त्व संस्कृत छाया में निविष्ट हो गया है। जिस पर श्रीपटवर्धन की दृष्टि ही नहीं पड़ी। चन्द्राहतप्रतिबिम्बायाः मुक्ताट्टहासभीतायाः यस्याः गौर्याः
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