SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वज्जालरंग ४२३ परूढ ) का अर्थ है-विश्वास से उत्पन्न । अथवा उसकी छाया 'प्रणत प्ररूढानि प्रेमाणि' करके यह अर्थ ले सकते हैं विनम्र लोगों के द्वारा उत्पन्न किये हुये प्रेम को। गाथा क्रमांक ६०४ सच्चं चिय चवइ जणो अमुणियपरमत्थ नंदगोवालो। थणजीवणो सि केसव आभीरो नत्थि संदेहो ॥ ६०४ ॥ सत्यमेव वदति जनोऽज्ञात परमार्थो नन्दगोपालः स्तन्य जीवनोऽसि केशवाभीरो नास्ति सन्देहः --श्रीपटवर्धनसम्मत संस्कृत छाया रत्नदेव ने इसकी व्याख्या नहीं की है। श्रीपटवर्धन ने 'अमुणिय परमत्थ' को 'अमुणियपरमत्थो' समझकर इस पद्य का निम्नलिखित अर्थ दिया है "लोग यह सत्य ही कहते हैं कि नन्दगोपाल ( कृष्ण के पोषक पिता ) सत्य को नहीं जानते हैं। अरे कृष्ण ! तुम माता को छाती का दूध पीने वाले अहीर ( मूर्ख ) हो-~इसमें सन्देह नहीं है ।" उपर्युक्त अर्थ के सम्बन्ध में उनका यह उल्लेख है-- This seems to be the sense. But the exact point of the taunt is obscure. यहीं उसकी युक्तिमत्ता का विवेचन अनावश्यक है। द्वितीय-पाद में अवस्थित 'अमुणियपरमत्थ' को 'अमुणियपरमत्थो' समझना केवल क्लिष्टकल्पना है । 'अमुणियपरमत्थनंदगोवालो' एक ही समस्त पद है। उसकी व्याख्या यों होगी-न मुणियो णाओ परमो सेट्ठो अत्थो अणं पयोअणं वा जेण तारिसो नंदस्स गोवालो गोरक्खओ कण्हो इच्चत्थो अर्थात् परम अर्थ को न जानने वाला, नन्द का चरवाहा या गोरक्षक । 'परमत्थ' और 'थणजीवणो' पदों में श्लेष है और उनका अर्थ निम्नलिखित है। परमत्थ (परमार्थ) = १. श्रेष्ठधन (परम = श्रेष्ठ, अर्थ = धन) २. अन्तिम प्रयोजन अर्थात् मैथुन (परम = अन्तिम, ___अर्थ प्रयोजन) थण जीवण (स्तन्य जीवन) = १. स्तन्यं क्षीरमेव जीवनामाजीविका यस्य अर्थात् दूध ही जिसकी जीविका है, दुग्ध-विक्रेता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy