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________________ ४१२ जैसे निर्मल एवं निष्कलंक धारा वाली, प्रचुर लौहयुक्त खड्गलतिका ( तलवार ) म्यान के बिना; दिखाई पड़ने वाले ( नंगे या अनावृत ) अंग से ( युद्ध में जाने के लिये ) सज्जित नहीं होती है ( अर्थात् म्यान के साथ ही जाती है ) वैसे ही निर्मल एवं पवित्र हारों वाली, प्रचुर - लोभ-युक्त वेश्या, धनराशि ( कोश) के बिना पुलकित अंगों से ( रमण के लिये ) सज्जित ( तैयार ) नहीं होती है ( अथवा द्रव्यराशि के बिना किसी को वहन ( धारण ) नहीं करती अर्थात् अंगीकार नहीं करती है ) । गाथा क्रमांक ५६६ न गणेइ रूववंतं न कुलीणं नेय रूवसंपन्नं । वेस्सा वारि-सरिसा जत्थ फलं तत्थ संकमइ ।। ५६६ ॥ वज्जालग्ग इसके पूर्वार्ध की छाया यों दी गई है न गणयति रूपवन्तं न कुलीनं नैव रूपसम्पन्नम् । यहाँ समानार्थक रूपवन्तम्' और 'रूपसम्पन्नम्' को उपस्थिति के कारण पुनरुक्ति दोष आ जाता है । शुद्ध छाया का स्वरूप यह होगा - न गणयति रूपवन्तं न कुलीनं नैवारूपसम्पन्नम् । 'नेय अरूवसंपन्नं' में सन्धावचामज्लोपविशेषा बहुलम्' - इस वररुचि सूत्र से पूर्वस्वर - लोप के अनन्तर 'नेयरूवसंपन्नं' पद निष्पन्न होता है । प्रो० पटवर्धन ने पुनरुक्ति के मार्जन के लिये यह संभावना व्यक्त की है कि 'न गणेइ अरूववंतं' पूर्व सवर्ण सन्धि के परिणामस्वरूप इकारोत्तरवर्ती अकार के लुप्त हो जाने पर 'न गणेइ रूववंतं' हो गया होगा । परन्तु प्राकृत में ऐसे प्रयोग दुर्लभ हैं । पालि में अवश्य ऐसे प्रयोग मिलते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि इकार और उकार के पश्चात् यदि क्रमशः इकार और उकार नहीं आता, कोई अन्य स्वर आता है तो सन्धि नहीं होती है न युवर्णस्यास्वे – ११६ गाथार्थ - वेश्या वानरी के समान जहाँ फल ( लाभ ) होता है वहाँ जाती १. प्राकृत प्रकाश, ४।१ २. परो क्वचि Jain Education International - - मोग्गल्लान व्याकरण, १।२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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