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________________ वज्जालग्ग और अन्य तृण में स्थित हो जाती है ( लग जाती है ) वैसे ही वेश्या - समूह अवांछित प्रेमी के निकट जाता है एवं उसी पूर्णतया आसक्त श्रेष्ठ पुरुष की उपेक्षा ( अचिन्तन ) करता है तथा अधम नरों में स्थित हो जाता है ( अधम मनुष्यों से सम्बन्ध जोड़ लेता है ) । गाथा क्रमांक ५६४ निम्मल वित्तहारा बहुलोहा पुलइएण खग्गलइय व्व वेसा कोसेण विना न निर्मल पवित्रहारा (धारा) बहुलोभा (लोहा) पुलकितेनाङ्गेन खड्गलति वेश्या कोशेन विना न संवहइ ४११ अंगेण । संवहइ || ५६४ ॥ प्रस्तुत गाथा में निविष्ट 'संवहइ' का अर्थ रत्नदेव ने ' वशीभवति' लिखा है । संस्कृत टीका पर अवलम्बित अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है के जिसकी जिसके हार निर्मल और पवित्र हैं, जो प्रचुर लोभयुक्त है, जिसके अंग पुलकों से परिपूर्ण हैं, जो कोश ( धन ) बिना वश में नहीं होती, वह वेश्या उस खड्गलतिका के समान है, धारा निर्मल एवं पवित्र है, जो प्रचुर लौह युक्त है, जो पुलकों से परिपूर्ण सी दिखाई देती है ( प्रतिफलित किरणो के प्रकाशातिरेक के कारण ) और जो कोश ( म्यान ) के बिना वश में नहीं होती है ( या नियंत्रित नहीं होती है ) । उपर्युक्त अनुवाद में 'संवहइ' क्रिया के साथ बलपूर्वक अत्याचार किया गया है । 'पुलइएण अंगण' का खड्गपक्षीय अर्थ, जिसमें तृतीया विभक्ति की उपेक्षा कर दी गई है, नितान्त असंगत है । शब्दार्थ - संवहइ Jain Education International २ . वहन करती है या धारण करती है । पुलएण अंगण = १. पुलकितेनाङ्गेन, पुलकित अंगों से ( वेश्यापक्ष ) = १. सज्जित होती है या तैयार होती है ( पाइयसद्द - महणव ) । २. पुलअ ( दृश् ) + क्त ( अ ) = पुलइअ = दृष्ट, अवलोकित, देखे गये या अनावृत अंग से ( खड्गपक्ष ) प्राकृत में दृश् धातु को वैकल्पिक पुलअ आदेश हो जाता है ( हैम सूत्र, ४|१८१ ) इस दृष्टि से अर्थ यों होगा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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