SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वज्जालग्ग ४०९ यातः प्रियं प्रियं प्रति एक निर्वापयति तमेव प्रदीप्तम् । भवत्यपरस्थित एव वेश्यासार्थस्तृणाग्निरिव ॥ इस असमर्थ छाया से वेश्यासार्थ और तृणाग्नि-दोनों पक्षों से सम्बद्ध अर्थ एवं श्लेषजन्य चमत्कारातिशय का सम्यक् स्फुरण संभव नहीं है । प्रो० पटवर्धन को इसको व्याख्या में पर्याप्त आकर्ष और विकर्ष करना पड़ा है। उन्होंने श्लिष्ट पदों के ये अर्थ दिये हैंतं पलित्तं चिय विज्झाइ = १-फूस की आग जैसे ही लगती है वैसे ही एक के बाद दूसरे तृण को बुझा देती है। (अग्निपक्ष) २--जैसे ही उनमें प्रणय या आसक्ति की आग लगती है वैसे ही एक के बाद दूसरे वेश्याप्रेमी को नष्ट कर डालती है। (वेश्या-पक्ष) "विज्झा' क्रिया का वेश्या-पक्ष में कोई संगत अर्थ न बैठने के कारण उन्होंने लिखा है The root fear Is used here in the metaphorical sense 'to destroy or to ruin' अर्थात् यहाँ विज्झा का आरोपित या ध्वनित अर्थ है, नष्ट कर देना। रत्नदेव ने 'तं चिय पलित्तं' को 'तं चिय अपलित्तं' समझ कर व्याख्या की है। परन्तु ये क्लिष्ट कल्पनायें प्रकृत-पदों में स्थित निगूढ़ श्लेष को न समझने के कारण की गई हैं। चर्चित गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार होगी-- यातः प्रियं प्रियं ( यातोऽप्रियं प्रियम्' ) प्रति एक विध्यापयति (विध्यायाति) तदेव ( तमेव ) प्रदीप्तम् ( प्रलिप्तम् )। भवत्य परस्थित एव ( भवत्यवर स्थित एव ) वेश्यासार्थस्तृणाग्निरिव ।। तृणाग्नि-पक्ष में 'विज्झाइ' की छाया विध्यापयति पाइयसद्दमहण्णव १. प्राकृत व्याकरण में मर्वत्र बहुलाधिकार से यह प्रयोग सिद्ध है। यद्यपि ए और ओ के पश्चात् अ के आने पर प्रायः सन्धि नहीं होती है तथापि संस्कृत से सीधे श्लेषार्थ शब्द निष्पन्न करने में कोई बाधा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy