SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९० वज्जालग्ग किन्त्वन्येऽपि जना वदन्ति सुभगोऽप्यस्याः प्रियो नान्यतो, दृष्टि निक्षिपतीति विश्वमियतामन्यामहे दुःखितम् । गाथा क्रमांक ५०४ ३९- जइ गणसि पुणोवि तुमं विचित्तकरणेहि गणय सविसेसं । सुक्कक्कमेण रहियं न हु लग्गं सोहणं होइ ।। ५०४ ।। यदि गणयसि पुनरपि त्वं विचित्रकरणैर्गणय सविशेषम । शुक्र क्रमेण रहितं न खलु लग्नं शोभनं भवति ।। प्रो० पटवर्धन ने लिखा है "ज्योतिष पक्ष में 'शुक्रक्रमेण रहितम्' का अर्थ स्पष्ट नहीं है ( पृ० ५१२ )।" शृंगार पक्ष में उन्होंने 'लग्ग' ( लग्न ) का अर्थ मैथुन ( Coitus ) किया है। मेरे विचार से उभयपक्ष में उक्त दोनों शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंसुक्क कमेण रहियं = १. शुक्र की गति के बिना ( ज्योतिष पक्ष ) . २. वीर्य प्रवेश के बिना ( शृगार पक्ष ) लग्ग = १. लग्न, सूर्य का किसी राशि में प्रवेश करने का काल या विवाहादि का मुहूर्त ( ज्योतिष पक्ष ) . २. लगन या प्रीति ( शृङ्गार-पक्ष ) करण = १. ज्योतिष प्रसिद्ध दिन के ११ भाग २. कामशास्त्र प्रतिपादित आसन या बन्ध = १. गिनो २. मैथुन करो। यहाँ गिनने की क्रिया और गणक दोनों __ मैथुन और मैथुनकर्ता के प्रतीक के रूप में गृहीत हैं। गाथार्थ-यदि गिनते हो तो विचित्र करणों से तुम विशेष गणना करो शुक्र की गति के विना लग्न शुभ नहीं होता है । ( अर्थात् जिस राशि में सूर्य के अवस्थित होने पर शुक्र अस्त रहता है, उसमें विवाहादि का मुहूर्त शुभ नहीं समझा जाता है)। शृगार-पक्ष-यदि मैथुन करते हो तो विचित्र रतिबन्धों से विशेष मैथुन करो। वीर्य-संक्रम ( वीर्य-प्रवेश ) के बिना ( अर्थात् संभोग के बिना ) प्रीति ( लगन ) शुभ नहीं होती है । गणय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy