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________________ वज्जालग्ग ३८७ शुक्र-संक्रमण वृष्टिकारक है, परन्तु जब वह हस्त नक्षत्र में पदार्पण करता है तब पीडाकारक एवं जलवृष्टि-निरोधक हो जाता है ।' द्वितीय अर्थ ( शृंगार-पक्ष ) १. सुन्दरि ! पुरुषेन्द्रिय के निकट पहुँची (प्राप्त) हुई और सम्मानपूर्वक ग्रहण करने योग्य ( अयवा आदर से उपलब्ध ) युवतियों की विवत ( अनावृत ) योनि में प्रणय ( या काम विकार ) के शुष्क हो जाने की दिशा में नीरस मनुष्य का वीर्य नहीं पड़ता है ( अथवा जब वोर्य को स्थिति चित्त में होती है तब उक्त योनि में जड़ पुरुष को एक बूंद भी नहीं पड़तो है)। २-(विपरीत रति की अवस्था में ) पुरुषेन्द्रिय को प्राप्त एवं रतिबन्ध ( आसन विशेष ) में ( पुरुष की अनुद्यमता के कारण उसका ) स्थान ग्रहण करने वाली महिलाओं की विपरीत ( औंधी ) योनि में उस समय नीरस पुरुष की एक बंद नहीं पड़ती, जब वीर्य की स्थिति चित्त में होती है । ३-जो ( आघातार्थ ) नखों को धारण करती हैं, जो स्थान (शय्या या अन्य स्थान ) पर वक्र ( गहिय ) हो जातो हैं, उन महिलाओं की विपरीत योनि में उस समय पानी की भी एक बूंद नहीं पड़ती, जब प्रणय ( या काम विकार) शुष्क ( रसहीन ) हो जाता है ( अथवा जब वीर्य चित्त में स्थित हो जाता है )। आशय यह है कि जो स्त्रियाँ अभिमानवश मुंह फेर लेती हैं और छेड़-छाड़ करने पर नखों से घाव कर देती हैं उनकी योनि में वीर्य की कौन कहे, पानी की भी बूंद नहीं पड़ती है । गाथा क्रमांक ५०३ डज्झउ सो जोइसिओ विचित्तकरणाइ जाणमाणो वि। गणिउं सयवारं मे उट्ठइ धूमो गणंतस्स ।। ५०३ ॥ इस गाथा को अस्पष्टता का उल्लेख किया गया है ( पृ० ५१५)। अंग्रेजी टिप्पणी में अष्टाध्यायी के 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले' इस सूत्र को उद्धृत कर कहा गया है "गाथा में 'गणंतस्स' की आवृत्ति के कारण समानकर्तृकता नहीं रह १, कौरव चित्रकराणा हस्ते पोडा जलस्य च निरोधः । कूपकृदण्डजपीडा चित्रास्थे शोभना वृष्टिः ।। -बृहत्संहिता, शुक्राचाराध्याय, ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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