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( xxiii )
के लिये ऋजु और शत्रु के लिये रक्त । मान के लिये यद्यपि स्वतन्त्र एक वज्जा है, तथापि तत्सम्बन्धित गाथायें अन्यत्र भी उपलब्ध होती हैं। मान के हेतु के रूप ने प्रणय और ईर्ष्या- दोनों के दर्शन होते हैं । प्रवास का वर्णन अनेक वज्जाओं में प्रमुख रूप से किया गया है । प्रोषित, विरह, पुरुषालाप, अवरुग्णा, धन्य आदि बज्जायें प्रवासियों की विरहव्यथा का करुण वर्णन करती हैं । नारीनिष्ठ वियोग की अपेक्षा पुरुषनिष्ठ वियोग कम है । पथिक और अन्य वज्जाओं में विप्रलंभ के आश्रय पुरुष हैं । परकीया के विरह का कारण लोकमर्यादा है । कहीं-कहीं एकपक्षीय प्रणय और लज्जादि भी संयोग में अन्तराय उपस्थित करते हैं । विरही नारी के आन्तरिक सौन्दर्य की स्मृतियाँ कम करते हैं । बाह्य रूप का आकर्षण ही प्रायः उनके प्रलापों का केन्द्र है ।
विरह को वास्तविक अग्नि कहा गया है । वह काम रूपी वायु से प्रेरित और स्नेह रूपी ईंधन से उद्दीपित होने पर असह्य बन जाता है । सन्निपात के समान उसमें ज्वर, शीत और रोमांच के लक्षण प्रकट होते हैं । विरहताप के वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं । शीतोपचार की रूढ़ियों को स्वीकार किया गया है । चन्द्र और चन्दन भी विरहिणियों को दग्ध करते हैं । वे प्रायः अनंग और चन्द्र को उपालंभ देती हैं । कहीं-कहीं निःस्वार्थ प्रणय के ऐसे उदात्त वर्णन भी मिलते हैं, जहाँ प्रेमिका प्रेमी के सुधासिक्त अंगों के स्पर्श की भी वाञ्छा नहीं करती, उसे देख लेना ही पर्याप्त समझती है
अच्छउता फंससुहं अमयरसाओ वि दूररमणिज्जं । दंसणमेत्तेण वि पिययमस्स भण किं ण पज्जत्त ॥
प्रणय की परिधि बहुत विस्तृत है । पशुओं के अनेक प्रणय-चित्र नितान्त मार्मिक हैं । उनमें विरह-ताप की तीव्रता मनुष्यों से कम नहीं । प्रिया की स्मृति में आहें भरते गजेन्द्र के सूँड़ पर स्थित हरित तृणों का कौर जल कर भस्म हो जाता है | वियोगी चक्रवाक पद्मवन को अग्नि, नलिनी को चिता, अपने शरीर को मृतक और सरोवर को श्मशान समझता है । अस्ताचलशिखरारूढ़ रवि को देखता हुआ वह विरहाकुल होकर चंचुगृहीत मृणाली को न खाता है और न गिराता ही है । ऐसा लगता है जैसे शरीर से प्रयाण करते हुये प्राणों को रोक रखने के लिये कंठ में अर्गला लगा दी गई हो । चक्रदम्पति को कभी सुख नहीं मिलता । रात्रि में अलग-अलग रहते हैं, तो वियोग की दारुण यन्त्रणा झेलते रहने पर भी प्रभातकालिक मिलन की आशा उन्हें जीवित रखती है, परन्तु कल्पना
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