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________________ वज्जालग्ग गाथा क्रमांक ४१८ दुइसमागमसेउल्लयंगि दरल्हसियसिचयधम्मिल्ले । थणजहणकवोलणहक्खएहि नायासि जह पडिया ॥ ४१८ ॥ (दूति समागमस्वेदार्दाङ्गि ईषत्रस्तसिचयकेशपाशे । स्तनजघनकपोलनखक्षतर्जातासि यथा पतिता ॥) नायक की अनुनय करने के लिए गई हुई और उसके साथ रमण करके लौटी हुई दूती के प्रति खिन्न नायिका की उक्ति है। टीकाकारों ने इसका निम्नलिखित अर्थ किया है हे दूति ! तुम्हारे अंग समागम-जनित स्वेद से आर्द्र हो गये हैं, तुम्हारा कचपाश किंचित् खिसक गया है, स्तन, जघन, और कपोलों पर लगे नखों के क्षतों से ज्ञात होता है कि तुम ( आचरण से ) पतित हो चुको हो ।' अटकल की बात तो बहुत दूर है, विदग्ध नायिका प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर भी किसी के चरित्र पर इतना स्पष्ट लांछन नहीं लगाती है। अतः टीकाकारों द्वारा प्रतिवादित उपर्युक्त अर्थतत्त्व का वर्णन अवश्य ही कुछ छिपा कर किया गया होगा। हम इसे सहृदय-संवेद्य एवं निगूढ़ व्यंग्यार्थ समझते हैं। प्रकट अर्थ कुछ और ही है । वस्तुतः यहाँ पडिया ( पतिता ) और समागम शब्दों में श्लेष हैपडिया = ( पतिता ) १. आचरण से पतित । २. भूमि पर गिरी हुई । समागम = १. संभोग २. आगमन, चलन क्रिया ( सम्यक् आगमः समागमः) अन्य शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंथणजहणकवोलणहक्खएहि = १. स्तन, जघन और कपोलों पर लगे नखों के क्षतों ( घावों ) से। जिस प्रकार स्तन, जघन और कपोलों पर अंकित नखों के क्षतों से रमणी का रमण व्यापार सूचित होता है, उसी प्रकार स्तन, जघन, कपोलों और नखों पर लगे घावों ( चोटों) से यह आशंका भी हो सकती है कि यह १. रत्नदेवकृत संस्कृत टीका और प्रो० पटवर्धनकृत अंग्रेजी अनुवाद २. स्तन, जघन, कपोल और नखों के घावों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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