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वज्जालग्ग
है। जो स्वयं निरवयव है, वह कोदण्ड क्या उठायेगा ? 'पुरतो यदि करोषि सन्धान' से अग्रतः अनभिगमन व्यक्त होता है। कामदेव प्रायः अनंगता का लाभ उठाता है। वह अदृश्य होकर रमणियों पर पीछे से प्रहार करता है । वह उन के सामने पड़ता ही नहीं है। अदृश्य होकर पोछे से शर-वृष्टि करने वाला निर्बल शत्रु भी अजेय होता है। अतः काम के शौर्य का रहस्य उसकी अरूपता और अप्रत्यक्षता में निहित है। विश्वविजयिनी तरुणियों के अमोघ नयन-शर उस रूपहीन पर पड़ते ही कब है ? यदि तरुणियों के समक्ष प्रकट होकर आगे से शर-संधान करने का दुस्साहस करे तो उस रूपवान् को वे कुतूहलवश अवश्य देखेंगी। फलतः अपांग-दृष्टियों से आविद्ध होने के कारण उसका लक्ष्य चूक जायगा। अतएव कवि ने उसे सम्मुख प्रत्यक्ष होकर बाण-सन्धान करने की चुनौती दी है। इस मनोहर पद्य में रमणियों के कुटिल कटाक्षों की अमोघता का सहृदय-संवेद्य प्रतिपादन किया गया है । शब्दों में अद्भुत व्यंजकता है ।
गाथा क्रमांक ४०० कह सा न संभलिज्जइ जा सा नवणलिणिकोमला बाला । कररुह तणु छिप्पंती अकाल घणभद्दवं कुणइ ॥ ४०० ॥
(कथं सा न संस्मर्यते या सा नवनलिनीकोमला बाला । कररुहैः तनुं स्पृशन्ती अकाले धनभाद्रपदं करोति ।।)
-रत्नदेवसम्मत संस्कृत छाया प्रो० पटवर्धन ने लिखा है कि इस गाथा के तृतीयपाद 'कररुह तणु छिप्पंती' का भाव स्पष्ट नहीं है।' रत्नदेव की संस्कृत छाया ऊपर दी गई है। यह छाया अशुद्ध एवं भावसंवहन में नितान्त असमर्थ है। 'छिप्पंती' वास्तव में कर्मणि प्रयोग है, कर्तरि नहीं। हेमचन्द्र ने भाव और कर्म में क्य प्रत्यय के लुक (लोप) के साथसाथ स्पृश धातु के 'छिप्प' आदेश का उल्लेख किया है
स्पृशेश्छिप्पः
-प्रा० व्या०, ४।२५७ कररुह लुप्त विभक्तिक तृतीयान्त पद है। तणु अल्पार्थक है। इस दृष्टि से तृतीय पाद को छाया इस प्रकार होगी
१. वज्जालग्गं, अंग्रेजी टिप्पणी पृ० ४८७ ।
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