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वज्जालग्ग
गाथा क्रमांक २२५ जं जीहाइ विलग्गं किंचिवरं मामि तस्स तं दिटुं ।
थुक्केइ चक्खिडं वण-सयाइ करहो धुयग्गीवो ।।२२५।। अर्थ- ( वह ) ऊँट सैकड़ों वनों को ( वृक्ष समूहों को ) चख कर, गर्दन हिलाकर थूक देता है। सखि, यह देखा गया है कि जिसकी जिह्वा में जो लग जाता है ( रुच जाता है ) उसके लिये वह श्रेष्ठ है । ___ उपर्युक्त गाथा के "किंचिवरं मामि तस्स तं दिट्ट" का अर्थ प्रो० पटवर्धन ने
यों दिया था
Whatever is seen or found or thought by the camel to be somewhat good at first sight.
यह अर्थ उचित नहीं है क्योंकि जं पद किंचि से अन्वित है, अतः पूर्वि का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार करना चाहिये
यत्किञ्चिद जिह्वायां विलग्नं, वरं सखि ! तस्य ( तस्मै वा ) तद् दृष्टम् ।
जिह्वा में लगने का अर्थ-जिह्वा से संलग्न होना नहीं, अपितु अच्छा लगना ( रुचना) है।
गाथा क्रमांक २४० रुणरुणइ वलइ वेल्लइ पक्खउडं धणइ खिवइ अंगाई। मालइकलियाविरहे पंचावत्थं गओ भमरो ।।२४०।। इस गाथा में रुणरुणइ (१) वलइ (२) वेल्लइ (३) पक्खउडं धुणइ (४) अंगाइ खिवइ (५)-इन पांच क्रिया रूप अवस्थाओं का वर्णन है । पंचावस्थ शब्द इन्ही पांचों अवस्थाओं का अर्थ देता है। पंचत्व या पंचता का अर्थ मृत्यु है । व्यंजना-व्यापार का स्फुरण होने पर पंच शब्द से पंचता या पंचत्व की स्मति होगी फिर मरण । पूर्ववर्तिचेष्टासाम्य-द्वारा 'पंचावत्थ' का अर्थ हो जायगा-मरण की अवस्था । साक्षात् पंचावत्थ शब्द से ही उक्त अर्थ ग्रहण करने में बाधा यह है कि पंच शब्द मरण का वाचक नहीं है। इस अर्थ में पंचत्व का ही प्रयोग होता है, अतः अवाचकत्व दोष भी होगा। यदि पंचावत्थ का ही अर्थ पंचत्व माने तो भी ठीक नहीं है क्योंकि मृत शरीर में उक्त क्रियायें असम्भव हैं।
गाथा क्रमांक २४१ मालइविरहे रे तरुणभसल मा झवसु निब्भरुक्कंठं । वल्लहविओयदुक्खं मरणेण विणा न वीसरइ ॥२४१॥
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