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________________ ३५२ वज्जालग्ग असमर्थमन्त्रतन्त्रेभ्यः कुलविमुक्तेभ्यो भोगहीनेभ्यः । दृष्टेभ्यः को न बिभेति व्यन्तरसर्पेभ्यः इव खलेभ्यः ॥ जिनके निवारण में उपदेश एवं उपाय (मन्त्रतन्त्र) व्यर्थ हैं, जो परिवार से मुक्त हैं, (परिवार की चिन्ता से मुक्त हैं या जिन्हें जन समूह ने त्याग दिया है) जो विषय-सेवन से नीच हो चुके हैं, उन खलों को मन्त्रतन्त्र (झाड़-फूंक) से असाध्य, (साँपों के) आठों कुलों से बहिर्भूत एवं फणहीन व्यन्तर सर्पो (प्रेतसॉं) के समान देखकर कौन नहीं डरता ? अवधी के महाकवि जायसी ने भी सर्यों के आठ कुलों की चर्चा की है : अस फॅदवार केस वै, परा सीस गिव फांद । आठौ कुरी नाग सब, भये केसन के बाद ।। -पद्मावत, १०९ प्रो० पटवर्धन ने यह टिप्पणी की है : "व्यन्तरों के उत्तमकुल में उत्पन्न होने की आशा की जाती है क्योंकि वे पातालवासी देव हैं।" यहाँ 'कुलविमुक्क' शब्द से उनकी अकुलीनता नहीं, अपितु अष्ठ-प्रथित-कुल-बहिर्भूतता अभिप्रेत है । अंग्रेजी अनुवाद 'भोयहीण' को 'भोयवन्त' पढ़कर किया गया है । शब्दार्थ-कुलविमुक्क = कुलविमुक्त = १. गृह या परिवार से मुक्त (स्वतन्त्र) अर्थात् परिवार की चिन्ता से मुक्त । अथवा जन-समूह के द्वारा मुक्त (छोड़ दिये गये। २. आठों कुलों से मुक्त (स्वतन्त्र या पृथक्) अंग्रेजी अनुवाद में इस शब्द का अर्थ Devoid of noble birth दिया गया है । भोयहीण = भोगहीन = १. विषय-सेवन के कारण हीन (अधम) २. फण (भोग) से रहित गाथा क्रमांक ६१ मा वच्चह वीसंभं पमुहे बहुकूडकवडभरियाणं । निव्वत्तियकज्जपरंमुहाण सुणयाण व खलाणं ।। ६१ ॥ १. वज्जालग्गं, पृ० ४२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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