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परिशिष्ट 'ख'
कतिपय गाथाओं के अर्थ पर पुर्नविचार
प्राकृत ग्रन्थ-परिषद् से अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित वज्जालग्ग की भूमिका में विद्वान् सम्पादक श्री माधव वासुदेव पटवर्धन ने अनेक गाथाओं का भाव स्पष्ट करने में असमर्थता व्यक्त की है ।" संस्कृत टीकाकार रत्नदेवसूरि ने भी बहुत सी गाथाओं की सन्तोषजनक व्याख्या नहीं की है । इसके अतिरिक्त कुछ गाथायें ऐसी भी हैं, जिनके अर्थ तो दोनों व्याख्याकारों ने दिये हैं परन्तु वे मुझे जँचे नही या अधूरे लगे । साथ ही कुछ स्थलों पर किया गया आक्षेप भी मुझे उचित नहीं प्रतीत हुआ । अतः उन समस्त गाथाओं के अर्थतत्त्व का पुनर्निरूपण करना नितान्त आवश्यक समझता हूँ । यहाँ क्रमानुसार कतिपय गाथायें और उनकी विवेचनात्मक विवृत्तियाँ दी जा रही हैं :
गाथा क्रमांक (१)
सव्वन्नुवयणपंकयणिवासिणि पणमिऊण सुयदेवि । धम्माइतिवग्गजुयं सुयणाणं सुहासियं वोच्छं ||१||
टीकाकारों ने इस गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार दी है :
सर्वज्ञवदनपङ्कजनिवासिनीं
प्रणम्यश्रुतदेवीम् । धर्मादित्रिवर्गयुतं सुजनानां सुभाषितं वक्ष्यामि ॥
अर्थात् सर्वज्ञ के मुखाम्बुज में बसने वाली श्रुतदेवी को प्रणाम करके धर्म, अर्थ और काम से युक्त सज्जनों के सुभाषित कहूँगा ।
१. I am aware of the fact that inspite of my efforts to unriddle the meanings of a number of obscure stanzas in the text, I have not been able to give a satisfactory rendering and explanation of their exact sense... I shall be grateful if my readers send their suggestions, if any, in all such cases.
- वज्जालग्गं (अंग्रेजी अनुवाद सहित ) भूमिका पृ० ८ ।
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