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वज्जालग्ग
बालासिलोय-वज्जा १. हे कुरंगाक्षि ! निश्चय ही तुम्हारे उत्तुंग पयोधर के विषम कोट (दुर्ग) में स्थित होकर मानों अनंग फिर शिव से युद्ध करेगा ।। १॥
२. हे प्रसृताक्षि (हरिणलोचने, पसर भर को आँखों वाली) ! निश्चय हो यही तुम्हारे उन्नत उरोजों पर आरूढ़ मन्मथ अब निडर होकर शिव से युद्ध करने में समर्थ हो गया है ।। २ ॥
३. हे शशिवदने ! जिसके कारण भुजमूल दिखाई देने लगते हैं और स्यूल स्तन ऊपर उठ जाते हैं, वह तुम्हारा केशबन्धन कार्य (ईश्वर करे) एक दिन में न समाप्त हो ॥ ३ ॥
४. हे मृगाक्षि ! तुम्हें यह अपूर्व धनुर्विद्या किसने सिखाई है जो नेत्रबाण से विद्ध हो जाता है, वह अपने को सुखो समझ कर जीवित रहता है और जो विद्ध नहीं होता है, वह मर जाता है ॥ ४ ॥
५. हे सुन्दरि ! जहाँ-जहाँ तुम्हारी मनोहर एवं चंचल दृष्टि पड़ती है, वहीं-वहीं अंगों में मदन (धतूरे का विष और काम)-विकार हो जाता
६. हे मृगशावकलोचने ! हे शशिवदने ! इस सरोवर में मत जाओ, क्या तुम नहीं जानतो हो कि चन्द्रमा की आशंका से कमल मुकुलित हो गये हैं ? ॥ ६ ॥
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