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वज्जालग्ग
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४९६*१२. चन्द्रमा पंकजवनों को ज्योत्स्ना-जल से सींचता रहता है, फिर भी वह उन्हें अप्रिय ही है । कलंकी किसे भला लगता है ? ।। १२ ॥
४९६*१३. सास बहू को जानती है और बहू सास की करतूतें जानती है। दिन सुख से इसलिए बीत रहे हैं कि कहीं बेल से लड़ कर बेल फूट न जाय ॥ १३ ॥
४९६*१४. व्यभिचारिणियों के बीच में मैंने अपना हाथ ऊपर उठाया है, उन सबमें मेरा पहला स्थान है। हे प्रिय ! मैं तुम्हारे चरणों के आश्रय में हूँ। गङ्गा नदी मेरे लिये दूती का कार्य करती है (जब तुम्हारे द्वारा प्रक्षिप्त नागवल्लीपत्र' या काष्ठ-मंजूषा में रखे प्रणयपत्र को अपनी धारा में बहा कर मेरे निकट तक लाती है) ॥ १४ ॥
जोइसिय-वज्जा *५०७*१. सखि ! उस गणक का शिर (मस्तक) क्यों न चूम लें (चूमा जाय), जो शुक्र नक्षत्र के संक्रमण के न समाप्त होने के कारण उपस्थित मेरी वेदना को समझ गया है (शुक्रपात क्रिया के अपूर्ण रहने पर होने वाले क्लेश को जान गया है) ।। १ ।।
धम्मिय-वज्जा ५३२*१. चढ़ाये हुए एक ही धतूरे से जो लिंग (शिवलिंग) को परितोष होता है, वह सैकड़ों कुरबकों से नहीं (एक धूर्तारत से लिंग को जो आनंद मिलता है, वह सैकड़ों कुरत से नहीं) ॥ १ ॥
५३२*२. (अपने संकेत-स्थल पर वृक्षों का पल्लव तोड़ने के लिए प्रतिदिन आने वाले पुजारी को रोकने के लिए व्यभिचारिणी की उक्ति) धार्मिक ! दान, तप और तीर्थयात्रा से धर्म होता है, यह तो सुना जाता है, पर तरुण वृक्षों के पत्तों को तोड़ने से उत्पन्न होने वाला धर्म तुमने कहाँ देखा है ? ॥२॥
१. पहला व्यंग्यार्थ संस्कृत टीकाकार द्वारा निर्दिष्ट है और दूसरे की कल्पना मैंने
की है। * विशेष अर्थ परिशिष्ट 'ख' में देखिए ।
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