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________________ वज्जालग्ग ३३१ ४९६*६. नवीन कापालिनी अभी उपपति के धन से निर्मित मेखला को नितम्बों पर बाँध भी न पाई थी कि उसका स्खलन हो गया ॥ ६॥ ४९६*७. जार (उपपति) के मरघट की राख से उत्पन्न होने वाले सुख स्पर्श से जिसके अंगों में पसीना (सात्त्विक भावोद्रेकवश) आ गया था (संस्कृत टीका के अनुसार, जार के मरघट पर उत्पन्न होने वाली राख की सुखस्पर्श शय्या पर जिसे सुखानुभूति हो रही थी) वह नवीन कापालिनी शरीर में भस्म (राख) लगाना बन्द ही नहीं करती थी ॥ ७ ॥ *४९६*८. निविड अन्धकार में जिसके साथ रमण किया गया था और जिसे (बिना रमण किये ही) छोड़ दिया गया था, उन आँसुओं से युक्त और (रमण-जनित) उष्णता से युक्त, सास और बह-दोनों के हाथ शरत् सरोवर में एक साथ डाले गये (या छू गये) ॥ ८॥ ४९६*९. ताम्बूल आदि के पत्तों के अभाव में पिप्पलीपत्र (पीपल का पत्ता) भी खाया जाता है। सखि ! दोष क्या है ? जिस गाँव में परपुरुष नहीं हैं, वहाँ अपने पति से भी रमण किया जाता है ॥९॥ ४९६*१०. वे गली में संयोगवश आ मिले, पर उस समय लोगों के के भय से जो मैं उनसे बोली नहीं, वह विरहाग्नि की तपन आज भी हृदय में सनसनाती हुई सुलग रही है ॥ १० ॥ ४९६*११. उन्होंने आँखों से कह दिया और मैंने भी हृदय से स्वीकार कर लिया। जब तक दोनों के मनों ने इसे समझा, तब तक दुष्ट गाँव में कानाफूसी होने लगी ।। ११ ॥ १. विस्तृत अर्थ परिशिष्ट 'ख' में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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