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________________ ३२५ ४४५* ३. वर्षा की रात में वायु से आन्दोलित और थरथराते हुए बटोहो ने जब आवास की याचना की, तब प्रोषित-पतिका को रुलाई आ गई ॥ ३ ॥ ४४५ * ४. वह पथिक, मयूरों का शब्द, मेघों की गर्जना, सुदूरवर्ती गृह, पीवर स्तनो पत्नी और अपने देश को स्मरण करके खूब रोया ॥ ४ ॥ ४४५*५. तुम्हारे जाते ही उसके अंग ( देखने के लिए ) इतने अधिक मुड़ गये कि आँसुओं की धारा पीठ पर गिरती हुई सी दिखाई देने लगी ' ॥ ५ ॥ वज्जालग्ग धन्न - वज्जा ४४९*१. इस प्रकार प्राकृताभ्यासी लोल (कवि) ने तरुणों और तरुणियों की स्मृति (वियोग ) से सम्बद्ध पद्यों के समूह की ऐसी रचना को है, जिसमें रणांगण में छलाँगें भरते हुए अश्वों के समान शब्द उछलते हैं ॥ २ ॥ २ हियय-संवरण- वज्जा ४५४* १. अरे चंचल हृदय ! तुम उपेक्षित होकर भी उस व्यक्ति को चाहते हो । शिला पर गिरे हुए कन्दुक के समान आगे न जाकर तुरन्त वहाँ से लौटोगे ॥ १ ॥ * ४५४* २. अरे मूढ़ मन ! मानुष-सुख दुर्लभ हो जाने पर तू उसी प्रकार मिथ्या संगमाशा के द्वारा दूर तक भरमाया जायगा, जैसे हरिण मृगमरीचिका के द्वारा दूर तक दौड़ाया जाता है ॥ २ ॥ १. मूल में वाह शब्द है । संस्कृत टीकाकार ने उसका अर्थ अग्नि-ज्वाला किया है । २. * लोल कवि के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं है । गाथा के अनुसार वह कोई श्रेष्ठ कवि था । विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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