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४४५* ३. वर्षा की रात में वायु से आन्दोलित और थरथराते हुए बटोहो ने जब आवास की याचना की, तब प्रोषित-पतिका को रुलाई आ गई ॥ ३ ॥
४४५ * ४. वह पथिक, मयूरों का शब्द, मेघों की गर्जना, सुदूरवर्ती गृह, पीवर स्तनो पत्नी और अपने देश को स्मरण करके खूब रोया ॥ ४ ॥
४४५*५. तुम्हारे जाते ही उसके अंग ( देखने के लिए ) इतने अधिक मुड़ गये कि आँसुओं की धारा पीठ पर गिरती हुई सी दिखाई देने लगी ' ॥ ५ ॥
वज्जालग्ग
धन्न - वज्जा
४४९*१. इस प्रकार प्राकृताभ्यासी लोल (कवि) ने तरुणों और तरुणियों की स्मृति (वियोग ) से सम्बद्ध पद्यों के समूह की ऐसी रचना को है, जिसमें रणांगण में छलाँगें भरते हुए अश्वों के समान शब्द उछलते हैं ॥ २ ॥ २
हियय-संवरण- वज्जा
४५४* १. अरे चंचल हृदय ! तुम उपेक्षित होकर भी उस व्यक्ति को चाहते हो । शिला पर गिरे हुए कन्दुक के समान आगे न जाकर तुरन्त वहाँ से लौटोगे ॥ १ ॥
* ४५४* २. अरे मूढ़ मन ! मानुष-सुख दुर्लभ हो जाने पर तू उसी प्रकार मिथ्या संगमाशा के द्वारा दूर तक भरमाया जायगा, जैसे हरिण मृगमरीचिका के द्वारा दूर तक दौड़ाया जाता है ॥ २ ॥
१. मूल में वाह शब्द है । संस्कृत टीकाकार ने उसका अर्थ अग्नि-ज्वाला किया है ।
२.
*
लोल कवि के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं है । गाथा के अनुसार वह कोई श्रेष्ठ
कवि था ।
विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये |
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