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________________ वज्जालग्ग ३१३ ३४९*२. जो क्षण-भंगुर है, जो कठिनाइयों से पूर्ण है, जो मन को हर लेता है, जिसका प्रसार रोका नहीं जा सकता तथा जिसका स्वभाव स्थिर नहीं, उस प्रेम को सर्वथा होने दो ॥ २ ॥ ३४९*३. यदि देव ! मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मनुष्य लोक में जन्म न दें, यदि जन्म दें, तो प्रेम न हो और यदि प्रेम हो, तो वियोग न हो ॥ ३ ॥ ३४९*४. वह प्रेम और ही है, जो पारे को गोली के समान सौ टुकड़े हो जाने पर भी जुड़ जाता है। मृगाक्षि ! हमारा प्रेम तो मुक्ताफल के समान टूटने पर फिर नहीं जुड़ता ॥ ४ ॥ ३४९*५. दृढस्नेह ही जिसका नाल है, सद्भाव ही जिसके प्रसृत पत्र (फैली पंखड़ियां) हैं तथा रति ही जिसकी सुगन्ध है, उस प्रणयोत्पल का विनाश करने वाला मान-रूपी तुषार ही है ।। ५॥ *३४९*६. अहो ! संसार में प्रेम सुदृढ़ आशा से निर्मित होता हैयह मैं जानती हूँ, परन्तु वह (प्रेम) भाग्य से पीड़ित होता है (भाग्याधीन होता है)-केवल यह नहीं जानती ॥ ६ ॥ ३४९*७. प्रेम जब तक स्थिर रहता है, तब तक अमृत है। जब वह स्थिर नहीं रह जाता, तब विष से भी अधिक भयानक बन जाता है । मृगलोचने ! तुमने क्या कहीं भी विष से मिश्रित, अमृत देखा या सुना है ? ॥ ७॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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