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वज्जालग्ग
सुरय- वज्जा
३२८*१. जिनके हृदय पारस्परिक प्रेम के निर्झर में डुबकियाँ लगा रहे हैं और जिनका कोप कृत्रिम है, उन विश्वस्त प्रेमियों को सुरत में जो सुख मिलता है, वह सचमुच अमृत है ॥ १ ॥
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३२८*२. मुकुलित नेत्रों से युक्त मुख वाली, बिम्बोष्ठी नायिका रति का अवसान हो जाने पर पुनः सुरत-सुख न पाती हुई मुँह मोड़कर प्रिय से बातें करती है ॥ २ ॥
३२८* ३. सुरत के अन्त में सो जाने वाले ! कोपन ! आत्मंभर ! ( अपना पोषण करने वाले स्वार्थी) सो मत जाओ। अपना काम निकाल लेने वाले ! जिनकी रति समाप्त नहीं हो पाती, उन्हें जितना दुःख होता है, क्या तुम उसे नहीं जानते ? ॥ ३ ॥
३२८*४. चंचल वलय और मेखला की मनोहर झंकार सुन कर पत्नियों ने ईर्ष्या, रोष और स्त्रीत्व का परित्याग कर दिया ॥ ४ ॥
३२८*५. जिसकी रति अभी समाप्त नहीं हुई थी, उस प्रहृष्ट बाला रति के अन्त में कहा - " नाथ ! क्या तुम सो रहे हो ? (नायक ने कहा) — "हाँ मैं सो रहा हूँ" । ( नायिका ने कहा ) - " क्या तुम्हारा काम पूरा हो गया” ॥ ५ ॥
( आशय यह है कि तुम्हारा कार्य पूर्ण हो गया है, परन्तु मैं तो अभी सन्तुष्ट नहीं हुई हूँ)
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पेम्म - वज्जा
३४९* १. जिसका प्रथम आरम्भ मनोहर होता है, जिसमें घना लगाव हो जाता है तथा जो मान और अनुराग से रमणीय लगता है, वह प्रेम, उस इन्द्रधनुष के समान चंचल है और शीघ्र नष्ट हो जाता है, जिसका प्रथमारंभ मनोहर होता है, जो सीमाबद्ध रंगों से रमणीय होता है और मेघों से संलग्न रहता है ॥ १ ॥
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