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________________ वज्जालग्ग २७७ ३१*२. जिनके पीछे-पीछे कविरूपी भ्रमरों की पंक्ति आज भी चल रही है, उन प्राकृत के विदग्ध-रूपो गन्धहस्तियों (मद-गन्ध-युक्त हाथियों) को नमस्कार है ॥ २॥ ३१*३. संस्कृत-काव्य भस्म हो जाय और जिसने संस्कृत काव्य रचा है, वह भी। बाँस के घर में आग लगने पर तड़-तड़ का कटु शब्द होता है ।। ३ ॥ (संस्कृत काव्य-पाठ वैसा ही कटु लगता है जैसा बाँस के घर में आग लगने पर तड़-तड़ का शब्द) ३१*४. प्राकृत-काव्य पढ़ने पर जो उसका उत्तर संस्कृत में देता है, वह पुष्प-शय्या को पत्थर से पोटकर नष्ट कर देता है ।। ४ ।। ३१*५ छन्द के बिना काव्य, व्याकरण के बिना संस्कृत-भाषण, और रूप के बिना गर्व-ये तीनों शोभा नहीं पाते ॥ ५ ॥ ३१*६. जो परिवार के इकलौते पुत्र के समान हाथ-हाथ पर नहीं फिरता अर्थात् जन-जन के पास नहीं पहुँचता, वह काव्य क्यों पढ़ा जाता है ? उसकी रचना भो करके कवि ने अपनी विडम्बना की है ।। ६ ।। ३१*७. प्राकृत काव्य और प्रेम-ढोले ही छोड़ दिये जाते हैं । दोनों ही दन्तच्छेद (दाँत टूटना और दाँत से काट लेना) से श्रीहीन हो जाते हैं ॥ ७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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