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वज्जालग्ग
२६५ ७७१. अरे देखो, काँटा सोने और पत्थर को बराबर तौल रहा है ! अथवा निरक्षरों (अक्षरांकशून्य, मूर्ख) को गुण और दोष का विचार ही कहाँ है ॥ ५॥
९२-आइच्चवज्जा (आदित्य-पद्धति) ७७२. अरे सूर ! (सूर्य) भूतकाल में मेरु-शिखर के चारों ओर चक्कर काटते रहे, वर्तमान में चक्कर काट रहे हो और भविष्य में चक्कर काटते रहोगे, यदि एक माशा भी सोना पा जाओ, तो समझें कि तुम सच्चे शूर हो (या सच्चे सूर्य हो) ॥ १ ॥
७७३. हे सूर (सूर्य) जैसे निस्तेज हो जाने पर भी चन्द्रमा ने अपने को दिन में दिखला दिया है, वैसे ही यदि तुम भी रात में अपने को दिखा सको, तो समझें कि तुम सच्चे शूर हो या (या सच्चे सूर्य हो) ॥२॥
७७४. एक ही दिन में सूर्य की भी–उदय, भुवनाक्रमण (जगत् आक्रान्त करना या तपना) और अस्त हो जाना—ये तीन अवस्थायें होती हैं। अन्य लोगों की क्या गणना ? ॥ ३ ॥
९३–दोवयवज्जा (दीपक-पद्धति) ७७५. सगुण (वर्तिकायुक्त, गुणवान्), स्नेह पूर्ण (तैलसहित, प्रेम युक्त,) आलोकवान् (तेजोमय, कान्तियुक्त), तम (अन्धकार, तमोगुण) के समूह को नष्ट करने वाला और लोगों की आँखों को आनन्द देने वाला कौन है ? क्या सज्जन ? नहीं, दीपक ॥ १ ॥
७७६. दीपक अन्धकार को निगल जाता है और उसे ही कजल के व्याज से उगल देता है अथवा जिनका स्वभाव शुद्ध रहता है, वे कालिमा को हृदय में नहीं रखते ॥२॥
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