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*७१२. (हे कमल !) तुम जल विकार से अधिक ' ( या अन्य) नहीं जानते, निश्चय ही तुम्हारा समूह उज्ज्वल है, तुम तन्तु-रहित (या गुणरहित) एवं लक्ष्मी से सेवित हो । देखो तो ( वह लक्ष्मी) घर ( कमल) को भी नहीं रखती अर्थात् उन्हें श्रोहीन करके अन्त में चली जाती है या तुषारादि से रक्षा नहीं करती है ।
वज्जालग्ग
अन्यार्थ —तुम अपने से अन्य अर्थात् दूसरों को नहीं जानते, निश्चय ही लक्ष्मी द्वारा परिकरीकृत ( वाहन बनाये गये) पक्षी ( अर्थात् उल्लू) हो । तुम सूर्य-सम्मुख होकर देखो तो, वह (सूर्य) तुम्हारे मुख को भो स्थिर नहीं होने देता है । ( उलूक सूर्य को देखने में असमर्थ रहता है)
*७१३. लक्ष्मी के द्वारा गृहोत (लक्ष्मी के कृपापात्र ) व्यक्ति यदि ऊर्ध्व-मुख (ऊपर मुख या दृष्टि वाले) नहीं हो जाते, तो देखो, भला कमलों को जिन्होंने ऊपर उठाया है, उन नालों को ही वे न देखते ॥ ३ ॥
७१४. हे कमल ! लक्ष्मी का निवास होने के कारण तुम्हारा मुख उत्तान (ऊपर) हो गया है । यदि तुम गुणी ( गुण या तन्तु से युक्त) और सदा साथ लगे रहने वाले अपने नाल से भी विमुख (दूसरी ओर मुख रखने वाला, प्रतिकूल) हो तो फिर किसके सम्मुख (अनुकूल ) हो ? ॥ ४॥
७१५. कमल ! अपने शुष्क पत्रों (पंखड़ियों) के साथ-साथ तुम ने जो अपना कोश बढ़ा लिया है (अर्थात् पत्रों के सूख जाने पर जो तुम्हारा बीज - कोश बढ़ गया है ) ( पक्षान्तर -सुपात्रों के नष्ट हो जाने पर जो तुम्हारी निधि बढ़ गई है) तो लक्ष्मोपद (शोभा का स्थान, धन का समूह = लक्ष्मी व्रज) दूर रहे, अपना नाम भी खो दोगे ॥ ५ ॥
७१६. कमल का मित्र सूर्य है ( पक्षान्तर में शूर), वह पत्रों द्वारा चारों ओर से घिरा रहता है (उसको चारों ओर से सुपात्र याचक घेरे रहते हैं), वह लक्ष्मी (शोभा और धन ) का आलय है परन्तु जब जल ( पर या पैर) नहीं रह जाता ( पक्षान्तर में जब पद - हीन हो जाता है) तथा क्षणभर के लिए कोई सहारा नहीं देता है ॥ ६ ॥
( समासोक्ति से किसी उच्च - पदारूढ़ व्यक्ति का संकेत है )
१. यह अर्थ मूल में 'अप्पा परं' पाठ स्वीकार कर किया गया है । * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य |
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