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________________ वज्जालग्ग २४३ ७०७. जिसके पत्र (पंखड़ी) रूपी परिजन (पक्षान्तर में, सुपात्र परिजन = सेवक या कुटुम्बी) परस्पर संलग्न (सटे हुये और प्रेम में बँधे हुये) हैं, जिसने जड़ों के भारो जाल (समूह) को भूमि में गाड़ (निखात = णिहय) दिया है (पक्षान्तर में जिसने मों के कपट को नष्ट (निहत) कर दिया है) तथा जो मित्र (सूर्य और सुहृद्) को देखने से (मित्रों की देख-रेख में) सुखी है, उस कमल में लक्ष्मो क्यों न बसे ? ।। २ ॥ ७०८. जिसका कोश (कली और भंडार) प्रकट है, जो गुणों (विसतन्तु और अच्छाइयों) से समृद्ध है, जो पृथ्वी पर स्थिति (कु + लीन) है (पक्षान्तर में कुलीन है) और जो सुन्दर पत्रों से परिवेष्टित है (पक्षान्तर में, जिसका परिवार सुपात्र है), ऐसे कमल में रहने वाली लक्ष्मी ! तुम कृतार्थ हो गई हो ॥ ३ ॥ ७०९. अरे कमल ! तुम ने अपनी कठोरता (कंटक) जल में डुबो दी है (जड़ों में स्थानान्तरित कर दी है) और गुणों (तन्तुओं और अच्छाइयों) के समूह को छिपा दिया है। तुम्हारे इन रक्त (लाल और प्रेम-भरे) पत्रों (पंखड़ियों) में लक्ष्मी निवास करती है ।। ४ ।। . ७१०. हे कमल! यदि कपास के गुणों (तन्तुओं या रेशों)के समान तुम्हारे गुण (तन्तु) भी परछिद्र' को छिपा सकते, तो सम्पूर्ण जगत् में तुम्हारी किससे उपमा दो जाती ? ।। ५ ॥ ८१-कमणिदा-वज्जा (कमलनिन्दा-पद्धति) ७११. अलियों (भ्रमरों) के आलाप (गुजन) में खिलने वाले कमल ! राजहंसों ने तुम्हें जान लिया है, तो तुम्हारा फल पकने पर सुन्दर नहीं होगा ॥१॥ अन्यार्थ-मिथ्या वचनों के बीच प्रसन्न होने वाले कलाकार ! तुम्हें हंसों के समान राजाओं ने ग्रहण कर लिया है, तो भी समय की परिणति होने पर (समय बीतने पर) तुम्हारा शुभ परिणाम नहीं होगा अर्थात् पुरस्कार नहीं मिलेगा। १. साधु चरित सुभ सरिस कपासू । निरस विसद गुनमय फल जासू । __ जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा । वंदनीय जेहिं जग जस पावा । -रामचरित मानस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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