SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७७. कौन देने में समर्थ है या कौन नुसार जिसके भाग्य में जो फल विहित है, होता है) ॥ ७ ॥ ७५ -- ठाणवज्जा (स्थान - पद्धति) ६७८. राजाओं के प्रांगणों में स्थित होने पर गजराजों को जो महत्त्व प्राप्त होता हैं, वह विन्ध्य के शिखर पर नहीं । गुण उचित स्थानों पर ही विकसित होते हैं ॥ १ ॥ वज्जालग्ग ६७९. युवती ( या नववधू ) के कपोल पर स्थित होने पर चन्दन को जो महत्त्व प्राप्त होता है, वह मलयपर्वत के शिखर पर नहीं । उचित स्थानों पर ही गुण विकसित होते हैं ॥ २ ॥ ६८०. श्रेष्ठतरुणियों के नेत्रों में स्थित होने पर काजल' को जो महत्त्व मिलता है, वह दीपक की शिखा पर भी नहीं । गुणों का विस्तार उचित स्थान पर ही होता है ॥ ३ ॥ २३३ 1 लेने में । बेटा ! पूर्वकर्मा - वही प्राप्त होता है ( परिणत *६८१. सखि ! केश, दाँत, नख, ठाकुर (क्षत्रिय या ग्रामपति) और वधूटियों के स्तन जब स्थान - च्युत हो जाते हैं, तब जनसमूह (बहुजन) में कौन उनका आदर करता ॥ ४ ॥ १. ६८२. २ धीर पुरुष दुष्ट साथियों वाले राजपूत - समूह को ठहरने नहीं देता है । जब युद्ध छिड़ता है, तब लड़ता है और स्थान-स्थान पर यश प्राप्त करता है ।। ५ ।। २. * नैना के सिंगार कजरवा, मुँहु के कारिख होय । Jain Education International - सर्वमंगला, द्वितीय सर्ग अथवा अपना स्थान नहीं समर्पित करता । मूल में 'ठक्कुर संघस्स' में अनादरार्थक षष्ठी मानना बहुत आवश्यक नहीं है । विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy