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________________ वज्जलालग्ग २२९ ६६५. जीवन जलबिन्दु के समान भंगुर है, यौवन जरा के साथ उत्पन्न होता है, सभी दिन समान नहीं रहते, लोक (संसार-चक्र) कैसा निष्ठुर है ? ।। ७॥ ६६६. मनुष्य को आयु सौ वर्ष है। उसके भी आधे भाग में रातें होती हैं । आधे का आधा जरा और शैशव ले लेते हैं ।। ८ ॥ ६६७. इस लोक में कौन सदा सुखी रहा अथवा किसके धन और प्रेम स्थिर रहे, किसके बाल नहीं श्वेत हुये और बताइये विधाता ने किसे नहीं खण्डित किया ॥९॥ ७३–महिलावज्जा (महिला-पद्धति) ६६८. (लोग) ग्रह-चरित्र, देव-चरित्र, तारा-चरित्र और चल तथा अचल सब चरित्र जानते हैं, परन्तु महिला-चरित्र नहीं जानते ॥ १॥ ६६९. महिलायें छलछद्म से भरी रहती हैं, मोहकरूप से हृदय को रंजित कर देती हैं, उनके सत्य स्वभाव को आज तक बहुत लोग नहीं जानते हैं ॥ २॥ ६७०. मत्स्यों का जल में और पक्षियों का आकाश में चरण-चिह्न ग्रहण किया जा सकता है । केवल अकेला कामिनी का दुर्लक्ष्य (जिसे लक्षित करना कठिन है) हृदय पकड़ में नहीं आता है ।। ३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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