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वज्जालग्ग
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६४७. जिसका वर्ण कषाय, पिंगल और स्वच्छ (उज्ज्वल) था, जिसके अङ्ग कृष्ण थे, और जो जिह्वा के समान चपला से युक्त था, उस मेघ को पथिक प्रिया ने ऐसे उल्का पिशाच के समान देखा, जिसके नेत्र कषाय और पिंगल वर्ण के थे, जिसकी जिह्वा विद्युत् के समान चंचल थी और जिसके अंग कृष्ण थे ॥ २ ।।
६४८. मेघ गरज रहे हैं, मार्ग खण्डित हो चुके हैं, सरितायें दूर-दूर तक फैल गई हैं । अरी सरले ! अब भी प्रियतम का पथ देख रही हो ! (अब वह कैसे आ पायेगा ?) ।। ३ ।।
६४९. पथिक के ध्यान में डूबी हुई प्रोषित-पतिकाओं (पति-त्यक्ताओं) को देख कर वर्षा की धारा के व्याज से मेघों के नयनों से भी आँसू टपक रहे हैं ।। ४॥
६५०. प्रावृट् (वर्षा) में अपनी ग्रीवा उन्नत करके मानों मयूर ने कहा है कि ये कौन-कौन ऐसे लोग हैं जो अपनी पत्नियों को घर में छोड़कर प्रवास में हैं ॥ ५ ॥
६५१. अरे बटोही ! कलकण्ठी (कोयल) कह रही है कि जब तक तुम्हारी प्रिया श्यामल मेघों की गम्भीर गर्जना से मर नहीं जाती, उसके पूर्व ही घर जाओ, जाओ ।। ६ ।।
६५२. जिनकी जल-संचालन-क्रिया अज्ञात है, जो जल (विष) से विषम (ऊँचे-नीचे या स्थूल) हैं और जिनके निकट नहीं पहुंचा जा सकता, वे भूमण्डल के निकट आ गये मेघ, ऐसे भयंकर भुजङ्ग के समान दिखाई देते हैं, जिनका पद-संचालन (पैर चलाना, पैर रखना या पैरों से चलना) अज्ञात है, जो विष के कारण भयानक हैं, जिनका उल्लंघन करना कठिन है और जो पृथ्वी से चिपके रहते हैं ॥ ७ ॥
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