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वज्जालन्ग
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६२३. जब सास ने कहा कि पुत्रि ! प्रिय के घर में दीपक जला दो, तब भोले मुँह वाली बहू हँस कर अपना हृदय क्यों देखने लगी ? || १३ | (उत्तर---उसके हृदय में ही पति का घर था, वहाँ दीपक कैसे जलाये यह सोचकर उसे हँसो आ गई और अपना हृदय देखने लगी)
६२४. जब सखियों ने कहा- 'तुम्हारा प्रिय शून्य देवमन्दिर के समान है, तब मुग्धमुखी नायिका क्यों अधिक गर्ववती हो गई ? ॥ १४ ॥ (उत्तर-उसने समझ लिया कि इन सखियों ने उससे प्रणय-याचना की होगी और उसने सूनी न होगी। अतः उसे अपने प्रिय पर गर्व हो आया)
६५ - ससय-वज्जा (शशक-पद्धति) ६२५ बेटी ! तुम्हारा प्रिय गलियों के अगले छोर पर सुन्दर महिलाओं के हाथों में पड़ कर सेना को छावनी में प्रविष्ट शशक (खरगोश) के समान बच नहीं पायेगा (छूट नहीं पायेगा) ॥ १ ॥
६२६. तिल-तुष (तिल का छिलका या भूसी) के बराबर भी (अर्थात् थोड़ा सा भी) अप्रिय (अपराध) हो जाने पर सन्ताप होता है। सुभग ! बेचारा खरगोश चमच्छेदन से भी मर जाता है ।। २ । (खरगोश चर्मछेदन से (चमड़ा कट जाने से) मर जाता है, यह लोक विश्वास है)
६२७ यहाँ इन्द्र-धनुष है, यहाँ मेघ-गर्जना है और यहाँ मयूरों का कोलाहल है। पावस में पथिक, मनोहर शशक के समान (भीत होकर) क्यों नहीं देखता है ? ॥३॥ (पावस में इन्द्र-धनुष मेघ-गर्जन आदि से भीत खरगोश अपना स्थान नहीं छोड़ता है)
*६२८. जब प्रिय मन में आते हैं (या जब मन प्रिय के निकट जाता है) तब उसी मन में, उनकी जो कुछ भी इच्छा रहती है, मैं पूछ लेती हूँ। (अर्थात् पूर्ण कर देती हूँ) शशक ! (प्रियतम या मन) तुम द्रुतगामी हो, अन्य किस ढंग से जीवित रहा जाय ? (या जीवित रहा जाता है) ।। ४ ।। १. इस प्रकरण में शशक का वर्णन प्रमुख नहीं है । प्रमुखता प्रणय की
है। शशक शब्द प्रिय के प्रतीक के रूप में बार-बार गाथाओं में
आया है। * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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