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________________ वज्जालग्ग २०१ ५८३. जो अपने परिजनों के पूछने पर धन को प्रकट नहीं करते तथा रहने पर भी नहीं है'-कहते हैं, वे महान् धैर्यशाली हैं ? ॥ ५ ॥ ५८४. कृपण विकल होकर धन जोड़ते रहते हैं, किसी को देते नहीं हैं। (उसकी रक्षा के लिये) सभी भूतों की पूजा करते रहते हैं। उन की संपत्ति पुण्यक्षीण होने से नष्ट होती है, त्याग और भोग से नहीं ॥६॥ *५८५. कृपण कहता है-मैं किसी भी उदार (सत्पात्र) व्यक्ति को विविध रत्न नहीं देता हूँ। परन्तु दान के बिना भी मनुष्य को लक्ष्मी छोड़ देती है ।। ७॥ ६१--उड्डु-वज्जा (कूपखनक-पद्धति) प्रतीक परिचयउड्ड (कूप खनक) =- मैथुनकर्ता कुद्दाल (कुदाल! - लिंग पानी = रस या वीर्य खनन = संभोग वापो (बावली) = योनि वसुधा (भूमि) = सरस महिला वडवा (घोड़ी) = नीरस नारी ५८६. कूप-खनक (कुआँ खोदने वाला) दृढ़तापूर्वक कुदाल चलाता है, गहराई मे जाने के लिए व्यग्र सा हो कर उसे साता है, दोनों किनारों को काटता है और हितकारक (या गया हुआ) पानी ला देता है ॥ १ ॥ *५८७. खनन कुशल हाथों-द्वारा सिर और जानुओं में जुड़ा हुआ कूपखनक कुदाल से (भूमि में) अविद्यमान (रहित) जल कैसे लाये (कैसे निकाले) ? ॥ २ ॥ ५८८. सुदृढ़ कुदाल के आघात से जिस के मध्य में प्रचुरजल-स्रोत छलक रहा है, उस भरी हुई बावली को भी, वह खनक (खोदने वाला) स्पर्श पाकर नहीं छोड़ रहा है ।। ३ ।। मूल में हियपाणियं शब्द है। संस्कृत टीकाकार रत्नदेव ने उसका अर्थ 'हृदयेप्सितं पानीयम्' लिखा है। मैंने मूल प्राकृत की छाया 'हितपानीयम्' की है। हित का अर्थ है--गया हुआ या हितकारक । हितं पथ्ये गते धृते । -मेदिनी * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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