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________________ वज्जालग्ग १९९ ५७७. वेश्या उस श्मशान की शृगाली के समान है जो एक मृतक को खाती है, दूसरे को कटाक्ष से सुरक्षित रखती है और तीसरे पर दृष्टि रखती है ॥ १८ ॥ ५७८. जैसे मुनिजन संपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन कर तल्लीन होकर मोक्ष का ध्यान (चिन्तन) करते हैं और हाथ में भिक्षापात्र (या कवलिया = ज्ञानोपकरण विशेष) धारण करते हैं, वैसे ही वेश्या सम्पूर्ण धन लेकर, निर्धन विट से कब छुट्टी मिलेगी--यह सोचती रहती है और उसके हाथ में जो कुछ भी ग्रास आ जाय, उसे कवलित करने के लिए ही सदा उद्यत रहती है ।। १९ ।। ६०-किविण-वज्जा (कृपण-पद्धति) *५७९. कृपण किसी को धन नहीं देते और अन्य देते हुए मनुष्य को रोक देते हैं । क्या उनके धन (अर्थ) शास्त्र में अवस्थित ज्ञानतत्त्व (अर्थ = प्रतिपाद्य, अभिधेय) के समान सुने जाते है ? ॥ १ ॥ __ ५८०. कृपण-जन यह जान कर पृथ्वी में अपना धन गाड़ देते हैं कि हमें (एक दिन) रसातल में जाना ही है तो आधारभूत धन भी जाय (या पहले से ही प्रस्थान' रख दिया जाय) ॥२॥ ५८१. गजराजों के कुंभस्थल को जब सिंह विदीर्ण कर देता है, तब उन में (भी) मुक्ताफल दिखाई पड़ता है, परन्तु कृपणों के भण्डार तो केवल मरने पर ही प्रकट होते हैं ॥ ३ ॥ ५८२. कृपण धन को सदा हाथों से छूता है, आँखों से देखता भी है, परन्तु भित्ति पर अंकित चित्रपुत्तलिका के समान उसका उपभोग नहीं कर सकता है ॥४॥ १ आवश्यक-यात्रा के लिये शुभ मुहूर्त में घर के बाहर रखी हुई वस्तु । * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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