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वज्जालग्ग
५६५. जैसे मंजूषा में धन का संचय किया जाता है, उसे गुप्त रखा जाता है, वह लोहे से निर्मित होती है, सर्यों से पूजित होती है और धातु सम्बन्धी धनों का स्थान होती है, उसी प्रकार वेश्या धन-संचय करने वाली होती है, उसका गुह्य अंग सुन्दर होता है, लोभ में बँधी रहती है, विटों से सेवित रहती है और लोभ-रूपी धन का स्थान होती है (या लोभ से उत्पन्न धन का स्थान होती है या लोभाचरण का स्थान होती है) ॥ ६॥
*५६६. वेश्या वानरी के समान जहाँ फल (लाभ) होता है, वहाँ जाती है । वह न रूपवान् को गिनती है, न कुलीन को और न कुरूप को ।। ७ ।।
५६७. जैसे इन्द्रधनुष विभिन्न रंगों से युक्त, मेघों का निकटवर्ती, प्रत्यंचारहित, स्तब्ध (नीरव) और स्वभाव से ही वक्र होता है, वैसे ही वेश्याओं का हृदय अन्य-अन्य लोगों का रसिक, स्तनों का निकटवर्ती, गुणहीन, स्तब्ध (निश्चल या निष्ठुर) और स्वभाव से कुटिल होता है ॥ ८॥
५६८. जो कपटपूर्वक लोगों से रमण करती हैं, धन के लोभ से प्रिय बोलती हैं और जिन्हें अपनी आत्मा भी प्रिय नहीं है, उन वेश्याओं को नमस्कार है (अर्थात् उन्हें त्याग ही देना चाहिए) ॥९॥
५६९. पंडितों को वेश्याओं के घर जाना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वहाँ कुल-कलंक, अकीर्ति और धन-क्षय निश्चित है तथा दुश्चरित्र मनुष्यों के साथ रहना पड़ता है ।। १० ।।
*५७०. सुलभ और अल्प मूल्य वाली थाली से (या पत्ती या पत्तल) अपना समय बिता दो । राज-भवन में प्रयुक्त होने वाले पात्र (बर्तन) टूटने वाले और बहुमूल्य होते हैं ।। ११ ।।
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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