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वज्जालग्ग
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५५९. सरसों और विदग्ध - ये दोनों स्नेह ( तेल / प्रेम ) न रह जाने पर खल ( खली / दुष्ट) हो जाते हैं और तभी तक कोमल रहते हैं, जब तक उनका शरीर स्नेह से पूर्ण रहता है || ८ |
५९ - वेसावज्जा ( वेश्या - पद्धति)
५६०. जिस की गति सर्पिणी के समान कुटिल है, जो दरिद्र-गृह के दीपक के समान स्नेह-शून्य (प्रेम-रहित और तेल-रहित ) है और जो सुकवि के समान अर्थ (धन और भाव ) का लोभ करती है, उस वेश्या को देख कर नमस्कार करता हूँ ( अर्थात् त्याग देता हूँ) ॥ १ ॥
*५६१. जैसे चने की रोटी सुन्दर रंग की होती है, मुँह में स्वाद उत्पन्न करती है, घी (या तेल) के बिना विशेषरूप से गले में लग जाती है। ( अटक जाती है) और बाद में विकार (अजीर्ण आदि) उत्पन्न करती है, उसी प्रकार वेश्या भी सुन्दर कान्ति से युक्त होती है, प्रारम्भ में आनन्द प्रदान करती है, प्रेम रहित होकर भी गले से लिपट जाती है और अन्त में दोष (विकार) उत्पन्न करती है (घर से निकाल देती है ) ॥ २ ॥
*५६२. जैसे लौहमय प्रचुर कुटिला संदंशिका ( सँडसी) घनों के कठोर आघात एवं बाण के सम्बन्ध को सहन करती है और उस बाण को अपनी पकड़ में रखती है, वैसे ही लोभ-युक्त एवं पौरजनों से कुटिल व्यवहार करने वाली वेश्या, संभोग - जन्य सुदृढ़ अंग - निष्पीडन एवं नीरस (शुष्क ) जनों के संसर्ग को सहन करती है और (वेश्यागामियों की ) मुट्ठी से धन ले लेती है ॥ ३ ॥
*५६३. जैसे तृण की आग इष्ट-इष्ट तृण के निकट जाती है और उस प्रज्ज्वलितमात्र तृण को तुरन्त बुझा देती है तथा अन्य तृण में स्थित हो जाती है (लग जाती है), वैसे ही वेश्या - समूह अवांछित प्रेमी के निकट जाता है और उस पूर्णतया आसक्त श्रेष्ठ पुरुष की उपेक्षा करता है तथा अधम जनों में स्थित हो जाता है ( प्रेम करने लगता है) ॥ ४ ॥
*५६४. जैसे निर्मल एवं निष्कलंक धारा वाली प्रचुर लौहयुक्त खड्गलतिका ( कृपाण ) कोश (म्यान) के बिना दिखाई पड़ने वाले ( नंगे या अनावृत ) अंग से (युद्ध में जाने के लिए) सज्जित नहीं होती है, वैसे ही निर्मल एवं पवित्र हारों वाली, प्रचुर लोभयुक्त वेश्या कोश ( धन राशि) के बिना पुलकित अंगों से (रमण के लिए) सज्जित (तैयार ) नहीं होती है (अथवा द्रव्यराशि के बिना किसी को वहन ( धारण या अंगीकार ) नहीं करती ) ॥५॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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