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वज्जालग्ग
४२४. हे सुभग ! तुम्हें ढंढ़ते समय जिस के कपोल हर्ष से खिले हुए थे वह बाला, जो जहां नहीं है उसे वहां खोजतो हुई बड़ी देर तक भटकती रही ।। ३ ॥
४२५. हे बालक ! वह लोक-मर्यादा का उल्लंघन कर, शेष युवकों की गणना न करके, दिशाओं में आंखें फैलाये, तुम्हारे लिये भटक रही है ॥ ४॥
४२६. हे सुभग ! उस तन्वंगी की आंखें, जिनमें तुम्हारे वियोग के आंसू छलछलाते रहते हैं, मानों हृदय में स्थित शोकाग्नि के धुंए से भर कर च रही हैं ॥ ५॥
४२७. हे सुभग ! उस (युवक) के ओझल हो जाने पर उस(नायिका) को वे आंखें जो बाड़ के छिद्रों से झांक रही थीं, यों बह रही हैं जैसे उनमें कांटे लग गये हों ।। ६॥
४२८. हे सुभग ! वह तुम्हें स्मरण कर यों चिल्ला कर रोई कि सुखी मनुष्यों के भी आंसू गिर पड़े ॥ ७ ॥
४२९. वृति (बाड़) से वेष्टित एक-एक छिद्र में आंखें डाल कर झांकने वाली सुन्दरी, तुम्हारे अदृश्य हो जाने पर ऐसे छटपटाने लगी जैसे पिंजड़े में बन्द पंछी ।। ८॥
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