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________________ वज्जालग्ग १४१ ४१२. नायक ने नायिका को कुछ ऐसे ढंग से देखा और नायिका ने भी उस पर कुछ ऐसी दृष्टि डाली कि दोनों एक समय में ही रति का सुख अनुभव करने लगे ॥ १० ॥ ४३-दूईवज्जा (दूती-पद्धति) __ ४१३. दूती ! तुम्हीं कुशल हो, कठोर और कोमल-दोनों प्रकार की बातें कहना जानती हो। उसको कुछ ऐसा करना, जिस से खुजली भी मिट जाय और चमड़ा भी विरूप न हो ।। १ ।। ४१४. यह अपराध ही कितना बड़ा है और मेरे शरीर को यह अवस्था है। स्त्रियों को गति स्त्रियाँ हैं। तुम जो उचित समझना, करना ॥२॥ ४१५. (दती नायिका से प्रायः कहा करती थी कि तुम्हारा जो कार्य हो, उसे बताओ, वह मेरा कार्य है। एक दिन जब वह नायक से स्वयं रमण करके लौटी तब नायिका ने कहा) 'तुम्हारा जो कार्य हो उसे बताओ, वह मेरा कार्य है-यह ऐसे कहो जो समझ में आ सके । अरी दूती ! आज तो तुम सत्य-वचन में पारंगत हो गई हो (अर्थात् तुम्हारी बातें पहले मेरी समझ में नहीं आती थीं । आज तुमने अपनी वे बातें सच कर दी क्यों कि नायक से रमण करना मेरा कार्य था, उसे अपना कार्य बना लिया है') ॥ ३॥ *४१६. जिस का तिलक मिट गया था, कंचुकी उलट गई थी और सारे अंग पसीने से भर गये थे, उस दूती को देख कर (नायक का कोई) सन्देश (या उत्तर) न पाती हुई हँस पड़ी ॥ ४ ॥ (नायिका ने समझ लिया कि यह नायक से रमण करके लौटी है, इसी लिए तिलक मिट गया है, कंचुकी विपरीत हो गई है, पसीने से तर हो गई है और मुझे नायक ने क्या उत्तर दिया है, इसे भी नहीं कह पा रही है, अतः उसकी दशा पर हँसी आ गई) ४१७. हे दूती! यदि वह घर पर नहीं आता है तो तुमने क्यों अपना मुँह लटका लिया है ? मेरा प्रिय वही होगा जो तुम्हारा वचन (दूसरे पक्ष में वदन = मुँह) न खंडित करे (नायक से रमण करके लौटी हुई १. अंग्रेजी अनुवादक ने इस को अस्पष्ट बताया है । * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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