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वज्जालग्ग
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३७०. न मैं रोयी हूँ, न मैंने अमंगल ही किया है। तुम्हें सभी सिद्धियाँ (सफलतायें) मिलें। ये आँखें तो विरहाग्नि के धुएँ की कटु आहट से चू रही हैं ॥ ६ ॥
३७१. हे मूर्ख ! (शशि के वाहन शिव और उनका वाहन बैल अर्थात् मूर्ख) ऐसे समय प्रवास मत करो जब कि मयरों (शैलसुता के पुत्र कार्तिकेय और उनका वाहन मयूर) का शब्द मुखरित हो रहा है ॥ ७ ॥
३७२. अरे मूर्ख ! अरे सुभग ! यदि रोकने पर भी नहीं रुकते, तो मझे पानी' (लक्ष्मी का आवास कमल और कमल का आवास जल) देकर ही जाओ (अर्थात् मैं मर रहो हूँ, तर्पण करके फिर जाना) ॥ ८॥
३७३. गतपतिका ने भुजायें फैला कर कहा-'पथिक' इस मार्ग से मत जाओ, तुम्हारे जाने से प्रियतम के चरण-चिह्न धुंधले हो जायँगे ॥९॥
___३९-विरह-वज्जा (विरह-पद्धति) ३७४. *आज ही वे चले गये, आज ही लोग रात को जाग रहे हैं (चोरों के भय से या विरह से) और आज ही गोदावरी के कूल हरिद्रा से पोले हो गये [उस युवक पर आसक्त महिलायें अपने शरीरों को हरिद्रा के उद्वर्तन (उबटन) से मंडित करती थीं। आज जब वह चला गया तब उस उद्वर्तन को प्रयोजनहीन समझकर गोदावरी में धो रही हैं, अतः उसके कूल पीले हो गये हैं] ।। १ ।।
३७५. आज हो वे गये और आज ही गली का मुख, देवमन्दिर, चत्वर और हमारे हृदय सूने हो गये हैं ॥ २ ॥
१.
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यह शैली सूरदास की कूट शैली का प्राचीन रूप हैतोया को सुत तासुत को सुत तासुत-भख-वदनी । बिनती सुन लो हत भागनि की अब आगे नहीं डग और बढ़ाना । उस जन्म के बन्धु बटोही सुनो घर को किसी दूसरी राह से जाना। परदेश-बसे प्रिय का पद चिह्न पड़ा इसी धूल में है पहचाना । मिट जाय कहीं न तुम्हारे प्रयाण से पाँव पड़, इस ओर न आना ॥ विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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