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वज्जालग्ग
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३४६. न देखने, अधिक देखने, देखने पर भी न बोलने, मान और प्रवास-इन पाँच कारणों से प्रेम क्षीण हो जाता है ॥ १८ ॥
३४७. जिनके हृदय पूर्णतया प्रेम में बद्ध हो चुके हैं, उनका भी प्रेम न देखने से कालान्तर में वैसे गलित हो जाता है, जैसे हाथ की अंजलि में रखा हुआ पानी ॥ १९ ॥
३४८. दो प्रेमियों में जब विरोध के पश्चात् पुनः सन्धि होती है और जब किसी का दोष प्रत्यक्ष देख लिया जाता है, तब उष्ण करके पुनः शीतल किये हुये जल के समान प्रेम का स्वाद विकृत हो जाता है ॥२०॥
३४९. पुत्रि ! तभी तक कोई चतुर है, जब तक प्रेम के पाले नहीं पड़ता। प्रेम ही के द्वारा चातुर्य को जड़ें खोदी जाती हैं ॥ २१ ॥
३७-माण-वज्जा (मान-पद्धति) ३५०. मिथ्यावादिनि ! अनिमित्त-कोपने, न सुनने वाली, एक हो बात पर आग्रह करने वाली, सुन्दरी ! मेरी बात सुन लो, सुख ही जिसका एक मात्र बन्धु है, वह तारुण्य बीत रहा है ॥ १ ॥
३५१. अरी न सुनने वाली ! मधुपान करो, चन्दन ग्रहण कर लो। मेरी बात सुनो, मान से मत नाचो, यह उत्सव को रात्रि बीत रही है ॥२॥
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