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________________ वज्जालग्ग १०१ २९२. जो चंचल कोरों को वक्र बना देते हैं, वे तरुणियों के कृष्णश्वेत नेत्र जहाँ प्रेम को प्रगाढता होती है, वहीं पड़ते हैं ॥ २ ॥ २९३. मदनाकुलों को दृष्टि-जो विकार और विभ्रम (कटाक्ष) से युक्त रहती है, जो उत्सुकता से खिली रहती है, जो सुन्दर लगती है और जिसे रोका नहीं जा सकता-लाखों में पहचानी जा सकती है ।। ३ ।। २९४. केवल चंचल-पक्षमा वाले शुभ्र नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं कानों तक बाण खींचे हुये कामदेव जाता है ।। ४ ।। - २९५. बाला को वह दृष्टि, जो वक्र-लोचनों से सूचित होने वाले कामविकार से अलसायी है, कामदेव के बाणों को पंक्ति के समान किसका हृदय नहीं वेध देती ।। ५ ।। २९६. हे सुन्दरि ! पूर्णतया विष से भरी हुई (विष का वर्ण श्याम है) तुम्हारी आँखें ऐसे ही लोगों को मार डालती हैं, (फिर) काजल क्यों देती हो? ॥ ६॥ २९७. थोड़ा-सा काजल देने से जिनको कान्ति नीलोत्पल-जैसी हो गई है उन नेत्रों वाली वह बाला मदनोन्मत्त होकर त्रस्त मृगी के समान विचर रही है ।। ७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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