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________________ वज्जालग्ग ९९ २८६. घूमती हुई पुतलियों के वर्ण से मनोहर, वर-तरुणियों के कानों को छू लेने वाले दो नेत्रों के समान जो गूंजने वाले अक्षरों से प्रिय हैं तथा जो श्रेष्ठ तरुणियों के कानों को भला लग रहा है, उस पंचमराग से कौन संतप्त नहीं होता ॥ २॥ २८७ अन्य भी ग्राम (अर्थात् स्वर-समूह) और राग गाये जाने पर सम्पूर्ण सुख देते हैं । इस दुष्ट पंचम का चमत्कार ही अन्य है ॥३॥ २८८. *हे विशाल-लोचने ! जिनके भीतर पंचम-स्वर का प्रसार रहता है, उन मार्मिक वचनों से युक्त, दीर्घ, स्थूल (स्पष्ट या गंभीर) और उद्वेगोत्पादक निःश्वास (केवल प्रणय प्रसूत नहीं होते अपित) अपने कार्य (कठिन श्रम) से भी आते हैं ॥ ४ ॥ २८९. प्रियतम ! तुम वंचित रह गये क्योंकि अश्रुओं के प्रवाह से संवलित, लम्बी साँसों से स्खलित और धीमा हो जाने वाले उसके' पंचम राग की तान नहीं सुनी ।। ५ ।। २९०. पंचम-गीत सुना जाय, भगवान् शिव की पूजा की जाय और मनचाहे के साथ रमण किया जाय-इतना हो संसार में सार (तत्त्व) ३२- नयण-वज्जा (नयन-पद्धति) *२९१. अरी मुग्धे ! शत्रु के सैनिकों का (पुरुषों का) वध करने वाले, कृष्ण कान्तियुक्त एवं साथ में लाये गये (या संचालित) तीक्ष्ण खड्गों के समान, पराये पुरुषों का जोव लेने वाले (वियोग में) समादृत एवं पक्षप्रयुक्त तथा कृष्णधवलकान्ति वाले तेरे नेत्र किस-किस को नहीं मार डालते हैं ॥ १ ।। १. मूल में तोए (तस्याः ) शब्द है । *विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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