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२८०. पुत्रि ! जो नाना छल-कपट से भरे विदग्धों (चतुर व्यक्तियों) के पाले पड़ता है, उस शून्य मनुष्य का मन सदैव रिक्त रहता है, स्वप्न में भी सुख नहीं पाता ॥ ११ ॥
वज्जालग्ग
२८१. * हे कृशांगि ! यदि किसी प्रकार तुम उन चतुर जनों के समक्ष पड़ गई तो स्थूल साँड के समान एक मात्र दाह (तप्तशलाकांक और पीड़ा या जलन) से युक्त होकर कठिनाई से जीवित रहोगी पाठभेद मेंएक मात्र भारी दुःख की जलन से युक्त होकर कठिनाई से जीवित रहोगी) ।। १२ ।।
२८२. अरी बेटी ! चतुरों के आगे टेढ़ी ( वक्र- भणिति) बातें मत करो । ये दुष्ट हृदय में जो रहता है, उसे भी बुद्धि से जान लेते हैं ॥ १३ ॥
२८३. पुत्रि ! जो लीलापूर्वक देखकर भी हृदय का रहस्य जान लेते हैं, वे विदग्ध कृत्रिम उपचारों से धोखे में नहीं आ सकते ॥ १४ ॥
२८४. सहसा जिसे देखा नहीं, जिसके साथ सरल स्वभाव से बातें भी नहीं की और जिसके प्रति कोई उपचार भी नहीं किया, उस प्रियतम को विदग्धों ने जान लिया ॥ १५ ॥
३१ - पंचमज्जा (पञ्चम-पद्धति)
२८५. हे पथिक ! जिसमें किंचित् घुरघुराती हुई हुंकार मिश्रित है, वह कंठ के भीतर से निकला हुआ पंचमराग स्खलिताक्षर (टूटे अक्षरों वाला) होने पर भी मार डालता है, मत सुनो ॥ १ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य 1.
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