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वज्जालग्ग
२७४. चतुरजन (विदग्ध), राजा और खलों का मार्ग ही अपूर्व है। वे मन में अन्य सोचते हैं, वाणी से अन्य कहते हैं और करते कुछ अन्य हैं ॥ ५ ॥
२७५: जिनसे अपना काम निकलता है और जिनसे लाखों जन्मों में भी कोई काम नहीं निकलेगा-दोनों से चतुरों की एक-जैसी बातें होती हैं ॥ ६॥
२७६. चतुर लोग कुछ ऐसे ढंग से प्रिय शब्द बोलते हैं कि सच्चे प्रेम का अभाव होने पर भी संसार में सब उन्हें अपना भाई समझ कर शिरोधार्य कर लेते हैं ।। ७ ।।
२७७. बताइये, जो चित्त के पलड़े पर रखे हुये सम्पूर्ण जगत् को दृष्टि की तुला पर तौल लेते हैं, उन विदग्ध-जन-रूपी वणिकों को कौन ठग सकता है ? ॥ ८॥
२७८. जिसे विदग्ध नहीं जानते, वह न है, न हुआ, न होगा और उसे विधाता ने भी नहीं समझा है ।। ९ ॥
२७९. अहो, महानुभाव (विदग्ध-जन) विरक्त होने पर भी कठिनाई से लक्षित होते हैं (अर्थात् पहचाने जाते हैं)। वे मैत्री के आरंभ में जिस प्रकार मधुर संभाषण करते हैं, उसी प्रकार मैत्री के अन्तिम दिन भी वे कड़वी बात नहीं कहते ।। १० ।।
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