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________________ ८९ २५६. भ्रमर ने वायु से आहत पारिजात मंजरी का जो उपभोग कर लिया, तो उससे प्राप्त रस (आनन्द और जल) से शेष कुसुमों का संकल्प कर दिया (अर्थात् दान कर दिया । दान में दी हुई वस्तु को कोई पुनः ग्रहण नहीं करता है । दान संकल्प जल के साथ किया जाता है, यहाँ रस ही जल है ) ॥ ४ ॥ वज्जालग्ग २८ - हंस- वज्जा (हंस-पद्धति) २५७. तुम मानसरोवर के विभूषण हो और उज्ज्वल हो । अरे श्वेत वर्णवाले, तुम्हें क्या हो गया ? दुष्ट कौओं के बीच कहाँ पड़ गये ? ।। १ ।। २५८. यदि हंस श्मशान में रहे और कौआ कमलों के वन में, भी हंस-हंस ही है और कौआ - कौआ ही ॥ २ ॥ तब २५०. यदि क्षुद्र नदी वर्षा में नवीन मेघों के कारण उमड़ कर बहने लगे और विस्तृत हो जाय तो भी क्या राजहंस उसका सेवन करते हैं ? ॥ ३ ॥ २६०. दोनों ही पंखों वाले हैं, दोनों ही शुभ्र हैं और दोनों ही सरोवर में निवास करते हैं, फिर भी हंसों और वकों में बड़ा अन्तर जाना जा सकता है ॥ ४ ॥ २६१. हंस ! नवीन कमलों के मृणालों और (मृणाल भक्षी पक्षियों के) कोलाहलों से विभूषित' ( अथवा नवीन कमल-मृणालों की चंचल मालाओं से युक्त) मानस को छोड़कर नीरव क्षुद्र नदी का सेवन करते हुये तुम लज्जा से मर क्यों न गये ? ॥ ५ ॥ १. मूल में मालिअ शब्द है । मैंने पाइयसमहण्णव के विभूषित अर्थ दिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only आधार पर उस का www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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