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वज्जालग्ग
८३ २३८. भ्रमर के एक ही मन है, उसे मालती ने बाँध लिया है । शेष वृक्ष भी फूलें और फलें, रोकता कौन है ? ॥ ३ ॥
२३९. बार-बार मालती ! मालती ! हाय मालतो ! हाय मालती !कहता हुआ भँवरा दुःखी हो कर सम्पूर्ण वनराजि में भटक रहा है ।। ४ ।।
२४०. *भ्रमर मालती के वियोग में मरणावस्था को प्राप्त हो गया है। वह गुनगुनाता है, चक्कर काटता है, काँपता है, पंखों को हिलाता है और अंगों को पटकता है ।। ५ ।।
२४१. *अरे तरुण मधुकर ! मालतो के वियोग में मुक्तकण्ठ से विलाप मत करो । वल्लभा का वियोग बिना मरे नहीं भूलता ॥ ६ ॥
२४२. अभी मालती कलिका विकसित नहीं हुई थी, (युवती नहीं हुई थी) उस में रस (मकरन्द या शृंगार भाव) नहीं आया था और उसने अपने प्रणयी को चुना भी नहीं था कि अविनीत मधुकरों ने तभी उसे पीना आरम्भ कर दिया ।। ७ ॥
२४३- अरे विकसित-सरस- कमलों में रहने वाले भ्रमर ! जब तक मालती नहीं खिलती है, तब तक इधर-उधर जैसे-तैसे दिन काट लो ॥ ८॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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