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________________ वज्जालग्ग २४-करह-वज्जा (करभ-पद्धति) २२०. यद्यपि ऊँट अशोक-पल्लवों से भरे नन्दन वन में चरता है, फिर भी मरुस्थल के सुखों की स्मृतियाँ हृदय में आ जाती हैं ॥ १ ॥ २२१. वे शैल-शिखर, वे पीलु-पल्लव, वे करील-कुड्मल और मरुस्थल की वे विलास-क्रोडाएँ इस वन में कहाँ ? ॥२॥ २२२. करभ (ऊँट) ! बार-बार लम्बी गर्दन फैलाकर क्या देख रहे हो ? भाग्य विपरीत हो जाने पर मरुस्थल भी कहाँ मिलते हैं ? ।। ३ ।। २२३. मुग्ध-करभ ! तुम बार-बार दीर्घ, उष्ण एवं घनी उसाँसों से पीलु-वृक्षों के सम्पूर्ण पल्लवों को सुखा दे रहे हो। कौर भी नहीं उठा रहे हो । कौन-सा (ऐसा) अपूर्व पदार्थ चख लिया है ? ॥ ४ ॥ २२४. हे उन्नत-स्कन्ध करभ ! दुःख मत करो। कुछ चर कर धीरज धर लो। इस मदारों के मरुस्थल में तुम्हारे योग्य उन्नत वृक्ष कहाँ ? ॥ ५॥ - *२२५. (वह) ऊँट सैकड़ों वनों (वृक्ष-समूहों) को चख कर और गर्दन हिला कर, थूक देता है। सखि ! यह देखा गया है कि जिसकी जिह्वा में जो लग जाता है (रुच जाता है), उसके लिए वही श्रेष्ठ है ॥ ६ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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