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वज्जालग्ग
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१९-विझ-वज्जा (विन्ध्य-पद्धति) १८६. यदि विन्ध्याचल दाँतों की चोट, विकट तट प्रान्त का आमोटन (मर्दन) एवं सरस पल्लवों का भक्षण न सहे तो हाथी कहाँ जायँ ? ॥१॥
१८७. गजेन्द्र जब विन्ध्य को छोड़ने लगता है तो उसे वह रेवा नदी, उसका वह पानी, वे ही हाथियों के झुंड और वे ही सल्लकी के वृक्ष शल्य के समान सालते हैं (पीड़ा देते हैं) ॥२॥
१८८. विन्ध्य के अभाव में भी गजों को नरपतियों के भवनों में गौरव प्राप्त हो जाता है और विन्ध्य बहुत से गजों के चले जाने पर भी अगज (गजरहित) नहीं हो जाता है ॥३॥
१८९. गो, महिष, तुरंग और सभी पशुओं के रहने के लिये उचित स्थान है, परन्तु इन दग्ध-गजों को या तो विन्ध्याचल है या तो फिर कोई महाराज ॥ ४॥
२०-गयवज्जा (गज-पद्धति) १९०. हे यूथपति ! तुम्हारा मद गलित हो चुका है, युवावस्था बीत गई है और मुसल के समान (मोटे) दाँत हिलने लगे हैं, परन्तु तुम्हारे जीवित रहने से आज भी यह वन सनाथ है ॥ १ ॥
१९१. (स्वतन्त्र जीवन में कभी) सरोवर में नहाते समय करिणी (हथिनी) ने सूड़ से मृणाल उखाड़ कर जो मार दिया था, उसे आज भी (पराधीन दशा में) वह गजराज भूल नहीं सका है ॥२॥
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