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वज्जालग्ग
१४४. जाति, रूप और विद्या-ये तीनों कन्दरा और बिलों में चले जायें। जिससे गुण-वृद्धि होती है, वह धन ही बढ़े ॥ ७॥
१४५. निर्धनों के जो दिन धर्म, अर्थ और काम के अभाव में बोत चुके हैं, यदि विधाता उन्हें भी आयु के भीतर गिनता है, तो गिन ले परन्तु यह उचित नहीं है ॥ ८॥
१४६. शिशिर में दरिद्र-कुटुम्ब पंकजों की लोला धारण कर लेता है । वह सूर्य के संकुचित होने पर संकुचित और उसके विकसित होने पर विकसित होता है ॥९॥
१५-पहु-वज्जा (प्रभुपद्धति) १४७. प्रभु की क्रोड़ा, प्रिया का मान, समर्थ की क्षमा, ज्ञानी का भाषण और मूर्ख का मौन शोभा देता है ॥१॥
१४८. स्वच्छन्दता से बातें की जाती हैं, जो अपने मन को रुचता है, वह कार्य किया जाता है और अपयश से भी नहीं डरा जाता-इसी से प्रभुत्व रमणीय है ।। २ ॥
१४९. प्रभुजन (राजा) जो नीचों (अकुलीन लोगों) में अनुरक्त होते हैं-मैं समझता हूँ, यह दूध का प्रभाव है। (क्योंकि) वे जन्म के दिन ही माता के स्तनों के पतन-भय से धात्री की गोद में दे दिये जाते हैं ॥३॥
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