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________________ वज्जालग्ग १४-दारिद्दवज्जा (दारिद्रय-पद्धति) १३८. दारिद्रय ! धीर पुरुषों द्वारा छिपाये जाने पर भी तुम्हारे गुण पाहुनों, उत्सवों और व्यसनों (संकटों) में प्रकट हो जाते हैं ।। १ ।। १३९. दारिद्रय ! तुम्हें नमस्कार है, तुम्हारी कृपा से मुझे ऐसी सिद्धि प्राप्त हो गई है कि मैं सब लोगों को देखता हूँ परन्तु मुझे वे लोग नहीं देखते ।। २ ।। १४०. दारिद्रय ! तुम बड़े विचक्षण (विद्वान्) हो, (क्योंकि) जितने गुणवान्, स्वाभिमानी और विदग्धों में सम्मानित लोग हैं, उन पर अनुरक्त रहते हो ॥ ३ ॥ १४१. योग-सिद्ध देखे जाते हैं और कुछ अंजनसिद्ध भी दिखाई देते हैं। मैं दारिद्रय-योग-सिद्ध हूँ, मुझे अन्य लोग नहीं देख पाते हैं ।। ४ ।। १४२. जो वैभवरूपी वातव्याधि से भग्न होकर टेढ़ा पैर रख कर चलते हैं वे निश्चय ही दारिद्रय-रूपी महौषध से सीधे हो जाते हैं ॥ ५ ॥ १४३. सुन्दरि ! कुल, विनय और रूप से क्या होता है ? जो मनुष्य धन-हीन हो जाता है उसका कौन आदर करता है ? ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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