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________________ ४१ ११४. सत्पुरुषों के हृदय बड़े वृक्षों के शिखर के समान ऐश्वर्य प्राप्त होने पर ( वृक्ष - पक्ष में फल लगने पर ) विनम्र ( वृक्ष - पक्ष में अवनत ) और ऐश्वर्यहीन होने पर ( वृक्ष - पक्ष में फल झड़ जाने पर ) उन्नत हो जाता है ( वृक्ष - पक्ष में फल न रहने पर डालियाँ ऊपर चली जाती हैं ) ॥ ८ ॥ वज्जालग्ग ११५. सत्पुरुषों का व्यवसायरूपी वृक्ष हृदय में उत्पन्न होता है, वहीं बढ़ता है, लोक में प्रकट नहीं होता, जब उस का फल (परिणाम) सम्मुख आता है तभी उसे लोग जान पाते हैं ॥ ९ ॥ ११६. व्यवसाय का फल है विभव और विभव का फल है विह्वल जनों का उद्धार । विह्वल जनों के उद्धार से यश प्राप्त होता है और यश से कहो क्या नहीं मिलता ? ॥ १० ॥ ११७. जिन का मन उन्नत व्यवसाय (कार्य) में लग चुका है, उन सत्पुरुषों के द्वारा आरम्भ किए हुए कार्य चिरकाल तक कैसे निष्फल रह सकते हैं ॥ ११ ॥ ११८. लक्ष्मी न तो विष्णु के वक्षःस्थल पर रहती है, न कमलों के मध्य में और न क्षीरसिन्धु में । वह तो प्रकट रूप से सत्पुरुषों के व्यवसाय - सागर में निवास करती है ॥ १२ ॥ ११९. सूर्य के रथ के घोड़ों के समान सत्पुरुषों को हार्दिक विश्राम नहीं ही मिलता है । सूर्य के रथ के घोड़े उस दिन का आरम्भ करने में संलग्न रहते हैं और सत्पुरुष उसी दिन आरम्भ किए हुए कार्य में व्यापृत रहते हैं । सूर्य के रथ के घोड़ों को एक मात्र सूर्य के कार्य में हो आनन्द मिलता है तो सत्पुरुषों को मित्र के एक मात्र कार्य को पूर्ण करने में ही आह्लाद मिलता है ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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