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________________ वज्जालग्ग १०८. साहसपूर्ण स्वभाव वाले पुरुष अपने साहस से कुछ ऐसा साहसमय कार्य सिद्ध कर लेते हैं कि जिसे देख कर प्रतिकूल भाग्य (पराजय के कारण) अपना सिर धुनने लगता है ॥२॥ १०९. अथक परिश्रम और साहस से यश प्राप्त करने वाले धोर पुरुषों से पृथ्वो थर्रातो है, सागर क्षुब्ध हो जाते हैं और भाग्य विस्मित हो जाता है ॥३॥ ११०. *निकटवर्ती (पराजय जन्य) भय से आकूल दैव सम एवं विषम (अनुकूल एवं प्रतिकूल) अवस्थाओं को न गिनने वाले (परवाह न करने वाले) एवं साहस के समुन्नत शिखर पर आरोहण करने वाले धोर पुरुषों का मन रखता है (अनुकूल कार्य करने लगता है या उन के संकल्प को पूर्ण करता है) ।। ४ ।। १११. धीरजन अपने साहस से कर्मरत्न का कुछ ऐसा व्यवसाय (उद्योग या व्यापार) करते हैं जो शिव और विष्णु के मनों को भी आश्चर्य लगता है ॥ ५॥ ११२. अरे भाग्य ! धीर के साथ स्पर्धा करने पर (तुझे) कुछ ऐसा कलंक लगेगा जो धोने पर भी नहीं मिटेगा ॥ ६॥ १११. जैसे-जैसे भाग्यवश बिगड़ते हुए कार्य का परिणाम नहीं प्राप्त होता, वैसे-वैसे धीरों के मन में दूना उत्साह बढ़ने लगता है॥७॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । १. परिणाम, यहाँ सफलता सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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