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________________ वज्जालग्ग ७२. कुलीन व्यक्ति का वाग्बन्धन (बात में बँध जाना) सुदृढ़ लौहश्रृंखला तथा अन्य विविध पाशों के बन्धन से भी अधिक (सुदृढ़ ) है ॥ ८ ॥ २७ ७- नेह - वज्जा (स्नेह-पद्धति) ७३. * पूर्णिमा चन्द्रमा को धवल बना देती है और चन्द्रमा पूर्णिमा को । मैं समझता हूँ कि जिन मित्रों के सुख-दुःख समान होते हैं वे पुण्य के विना नहीं प्राप्त होते ॥ १ ॥ ७४. केवल ज्योत्स्ना ने तीनों लोकों में स्नेह प्रकाशित किया है, जो चन्द्रमा के क्षीण हो जाने पर क्षीण हो जाती है और बढ़ने पर बढ़ जाती है ॥ २ ॥ ७५. संसार में सागर और चन्द्रमा का स्वीकृत - प्रणय - निर्वाह सर्वदा सुशोभित होता है, क्योंकि सागर चन्द्रमा के क्षीण होने पर क्षीण हो जाता है और बढ़ने पर विशेष रूप से बढ़ जाता है || ३ || ७६. पूर्वकृत - कर्म की प्रेरणा से जीव जिस के साथ प्रीति का सम्बन्ध जोड़ लेता है वह दूर रहने पर भी दूर नहीं रहता, जैसे चन्द्रमा कुमुदवन से ॥ ४ ॥ Jain Education International ७७. पूर्व-मिलित सज्जनों के चित्तों से दूर रहने पर भी कोई दूर नहीं रहता । आकाश में रह कर भी चन्द्रमा कुमुद वनों को आश्वस्त कर देता है ॥ ५ ॥ विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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